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________________ ॐ मोक्ष : क्यों, क्या, कैसे, कब और कहाँ ? ॐ १३१ 8 अथवा शरीर अस्वस्थ हो, मन बेचैन और उद्विग्न हो, इन्द्रियाँ अस्वस्थ, विकल और रोगग्रस्त हों तो ये सब साधन या सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ निरर्थक समझे जाते हैं। शरीर के अभाव में इनमें से एक की भी जरूरत नहीं रहती। शरीर रहता है तो ये सब विकल्प उठते हैं, इसीलिए 'न्यायदर्शन' में शरीर की परिभाषा की गई-“भोगस्य साधनं शरीरम्।"-जो भोग का साधन है, वह शरीर है। सांसारिक या पदार्थ-सापेक्ष सुख-भोग की कल्पना भी शरीर से जुड़ी हुई है। मोक्ष में न तो शरीर है और न शरीर से सम्बद्ध सांसारिक सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ हैं और न शरीर से भोग्य-उपभोग पदार्थों और इन्द्रिय-विषयों से सुखभोग की कल्पना। मोक्ष शरीरादि से बिलकुल मुक्त अवस्था है।' . मोक्ष अशरीरी अवस्था है, शरीरादि से बिलकुल मुक्त वस्तुतः मोक्ष अशरीरी अवस्था है। किसी द्रव्य या क्षेत्र-विशेष का नाम मोक्ष नहीं है। सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है-“जब आत्मा कर्ममल-कलंकरूपी शरीर को अपने से सर्वथा अलग कर देती है, तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे मोक्ष कहते हैं।” अतः मोक्ष में शरीर से सम्बन्धित किसी भी सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ से या इन्द्रिय-विषय-सुखों से अथवा भोग-सुखों से कोई वास्ता नहीं रहता, वहाँ एकमात्र आत्मा ही रहती है। आत्मा का ही ज्ञान, आत्मा का ही दर्शन और आत्मा या आत्म-भावों में रमण, आत्म-स्वरूप में ही लीन रहना ही मोक्ष का स्वरूप है। आत्मा को ही जानना, आत्मा को ही देखना और आत्मा में ही रहना इन तीनों का समन्वित रूपा ही मोक्ष है। इसीलिए 'सिद्धिविनिश्चय' में कहा गया है-“जीव के अन्तर्मल राग-द्वेष, मोह, भय, काम आदि तथा इनके कारण बँधने वाले कर्म, शरीरादि मल) के क्षय से आत्म-लाभ (आत्म-स्वरूप की उपलब्धि) होना मोक्ष है। वह न तो अभावरूप है, न ही अचेतनारूप है और न ही अनर्थक चैतन्यरूप है।" 'षड्दर्शन समुच्चय' के अनुसार-“समस्त कर्मों के क्षय से जीव की स्व-स्वरूप में अवस्थिति मोक्ष है।"३ १. 'जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ' (आ. महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. १८६ २. (क) निरवशेष-निराकृत-कर्ममलकलंकस्य शरीरस्यात्मनोऽचिन्त्य-स्वाभाविक-ज्ञानादिगुणमव्याबाधसुखमात्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति। -सर्वार्थसिद्धि १/१ (उत्थानिका) (ख) आत्यन्तिको वियोगस्तु देहादेर्मोक्ष उच्यते। -षड्दर्शन समुच्चय ५२ (ग) कर्मनिर्मोक्षो मोक्षोऽनन्तसुखात्मकः। - सम्यग्विशेषण-ज्ञान-दृष्टि-चारित्रसाधनः॥ -महापुराण २४/१६ (घ) आत्मलाभं विदुर्मोक्षं जीवस्यान्तर्मल क्षयात्। नाऽभावो, नाप्यचैतन्यं, न चैतन्यमनर्थकम्॥ -सिद्धिविनिश्चय ७/१९ ३. कर्मक्षयेण जीवस्य स्वस्वरूप स्थितिः शिवम्। -षड्दर्शन समुच्चय १६ (राज.) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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