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________________ ॐ ११८ * कर्मविज्ञान : भाग ८ संघटन वज्रऋषभनाराच या ऋषभनाराच जैसा नहीं होता। अत्यन्त भयंकर अनेकानेक कष्टों-परीषहों तथा उपसर्गों के उपस्थित होने पर जिस साधक की चित्तवृत्ति में रंचमात्र भी विकार उत्पन्न न हो, वही शुक्लध्यान का अधिकारी है।' शुक्लध्यान के प्रारम्भिक अभ्यासी साधक की अर्हता यद्यपि शुक्लध्यान का अभ्यासी साधक प्रारम्भिक भूमिका में इतना धैर्यशील, इतना सहिष्णु न हो, तो भी शुक्लध्यानी के मानसिक एवं शारीरिक बल के साथ-साथ उसका हृदय पूर्णतया वैराग्यवासित होना चाहिए। उसका मानसिक निरोध भी उच्च कक्षा का होना आवश्यक है। उसकी आत्मा में प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था परम उच्च कोटि की होनी चाहिए। धर्मध्यान से शुक्लध्यान को बढ़कर इसलिए माना गया है कि धर्मध्यान कम योग्यता वाला सम्यग्दृष्टि तथा श्रावकव्रती भी कर सकता है, जबकि शुक्लध्यान तो वही कर सकता है, जिसका शारीरिक संहनन सुदृढ़ एवं वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच और नाराच, इन तीनों उत्तम कोटि के संहननों में से किसी एक कोटि का हो। ध्यान का लक्षण 'तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार है-उत्तम संहनन वाला साधक ही शुक्लध्यान में प्रवेश पा सकता है। साधक में जब तक इतनी योग्यता न हो, तब तक उस साधक को आत्मोत्कर्ष के लिए धर्मध्यान में ही धैर्यपूर्वक प्रगति करते रहना चाहिए। धर्मध्यान और शुक्लध्यान का फल धर्मध्यान के अनुष्ठान को विधिपूर्वक सम्यक् प्रकार से करने से देवलोक की प्राप्ति होती है। अतः धर्मध्यान साधक देवलोक के उत्तमोत्तम स्वर्गीय सुखों को भोगकर पुनः मनुष्यगति में आकर विवेक-प्राप्ति द्वारा कर्मों का क्षय करके शुक्लध्यान के अनुष्ठान से अव्ययपद-मोक्ष सर्वकर्ममुक्ति को प्राप्त कर लेता है। निष्कर्ष यह है कि शुक्लध्यान का फल परम कल्याणरूप मोक्ष और धर्मध्यान का फल स्वर्ग है। शुक्लध्यान का स्वरूप, अर्थ और लक्षण शुक्लध्यान आत्मा की सर्वोत्कृष्ट स्थिति है, आत्मा का अपने स्वरूप में पूर्ण रूप से स्थित होना, एकमात्र स्वरूप में रमण करना है, आत्मा को अपने अनन्त चतुष्टयरूप निज गुणों को प्राप्त कर लेना है। इस कारण शुक्लध्यान में चित्रवृत्ति की १. (क) उत्तम संहननस्यैकाग्रचित्तानिरोधो ध्यानम्। -तत्त्वार्थसूत्र ९/२७ (ख) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. ३१-३२ (ग) वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच और नाराच, ये तीन संहनन शारीरिक संघटन उत्तम माने गए हैं। -सं. २. 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. ३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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