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________________ ॐ ११६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ * मनुष्य और तिर्यञ्च आदि की विभिन्न योनियों के जीवों का आधार होने से ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक एवं अधोलोक; इन तीन भागों में विभक्त है।'' इन और ऐसे ही लोक-सम्बन्धी विचारों का स्रोत धर्मध्यान का यह चतुर्थभेद -संस्थानविचय है). भगवान महावीर द्वारा किया गया संस्थानविचय ध्यान का प्रयोग संस्थानविचय धर्मध्यान भगवान महावीर के ध्यान का भी विषय रहा है। 'आचारांगसूत्र' में उनकी साधना के संक्षिप्त विवरण प्राप्त होते हैं। भगवान महावीर की ध्यानचर्या से धर्मध्यान के संस्थानविचय नामक ध्यान का विषय अधिक स्पष्ट हो जाता है-“वे भगवान महावीर के ध्यान के योग्य आसन से निश्चल रूप से बैठकर ऊर्ध्वलोक, अधोलोक एवं तिर्यग्लोकगंत जीव-अजीव आदि पदार्थों का द्रव्य और पर्यायरूप से चिन्तन करते हुए समाधि को प्राप्त हो जाते थे तथा आत्म-शुद्धिरूप समाधि का प्रेक्षण करते थे।" इसके अतिरिक्त ‘आचांरागसूत्र' में भगवान महावीर के स्वयं कथन का उल्लेख है कि “जिस प्रकार मैंने यहाँ (मनुष्यलोक में) कर्मों की सन्धि (बन्ध) को क्षीण किया है, उस प्रकार से अन्यत्र (मनुष्यलोक के सिवाय) कर्मसन्धि का क्षीण होना दुष्कर है, कठिन है।" यह भी कहा है-(इस लोकविचय धर्मध्यान के द्वारा) “यहाँ साधक गति-आगति को जानकर जन्म-मरण के मार्ग को पार करके शीघ्र मोक्ष को पा लेता है।"२ भगवान महावीर के लिए कहा गया है-“वे लोकविपश्यना करते थे।" धर्मध्यान के चारों भेदों को क्रियान्वित करने के लिए सहायक बारह प्रकार इस प्रकार धर्मध्यान के इन चारों भेदों को जानने तथा क्रियान्वित करने के लिए स्थानांगसूत्र' में इसके चार लक्षण बताए हैं-आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, उपदेशरुचि एवं सूत्ररुचि। धर्मध्यान सालम्बन होने से इसके चार आलम्बन बताए हैं-वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना और धर्मकथा। धर्मध्यान के विषय में गहराई से चिन्तन के लिए ४ अनुप्रेक्षाएँ बताई हैं-अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा तथा संसारानुप्रेक्षा। इस प्रकार योग-संग्रह में धर्मध्यान के ४ प्रकार, ४ लक्षण, ४ आलम्बन और ४ अनुप्रेक्षाएँ मिलकर धर्मध्यान के कुल १६ भेद परिगणित हैं, जो मोक्ष-साधना के लिए योग्य हैं। १. 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. ३० २. (क) अविज्झाइ से महावीरे आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। उड्ढं अहे तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिवन्ने॥ -आचारांग, अ. ९, उ. ४, सू. १०८ (ख) जहित्थ मए संधी झोसिए, एवमन्नत्थ संधी दुज्झोसए भवइ, तम्हा बेमि नो निहणिज्ज वीरियं। -वही, श्रु. १, अ. ५, उ. ३ (ग) आयतचक्खू लोगविपस्सी। -आचारांग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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