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________________ ॐ १०८ * कर्मविज्ञान : भाग ८ * ‘समवायांगसूत्र' के ३२वें समवाय में तथा ‘आवश्यकसूत्र' के श्रमणसूत्रअधिकार में ३२ प्रकार के योग-संग्रह का उल्लेख है। योग-संग्रह के इस अपेक्षा से दो अर्थ निष्पन्न होते हैं-(१) प्रथम अर्थ के अनुसार-मन-वचन-काया के त्रिविधयोगों का अध्यात्म-साधना द्वारा साध्य प्राप्त करने हेतु सम्यकप से ग्रहण करना, नियमबद्ध होना, अभिग्रह ग्रहण करना, धारण एवं प्रयोग करना अथवा ग्रहण ज्ञान को भी कहते हैं, इस अपेक्षा से अर्थ होता है-इनके (योगों के) प्रयोग का सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना योग-संग्रह है। (२) दूसरे अर्थ के अनुसार-मोक्षरूप साध्य से जोड़ने वाले इन साधनों (योगों) का सम्यग्रहण, प्रयोग, धारण या ज्ञान प्राप्त करना। अतः मोक्ष के साधन योग्य वे बत्तीस योग-संग्रह इस प्रकार हैंमोक्ष के साधन योग्य : बत्तीस योग-संग्रह (१) गुरुजनों के अपने दोषों की आलोचना (निन्दना, गर्हणा, प्रायश्चित्त) करना (और आत्म-शुद्धि करना), (२) किसी के दोषों की आलोचना सुनकर किसी और के पास न कहना, (३) संकट (विपत्ति) आ पड़ने पर भी धर्म में दृढ़ रहना, (४) किसी की सहायता की अपेक्षा न करते हुए आसक्तिरहित (सकामनिर्जरा की . अपेक्षा से) तप करना, (५) (सूत्रार्थग्रहणरूप) ग्रहणशिक्षा (विचारशिक्षा) और आसेवना (आचार) शिक्षा का अभ्यास करना, (६) शरीर की निष्प्रतिकर्मता (शोभा-शृंगार साज-सज्जा से रहितता) रखना, (७) पूजा-प्रतिष्ठा आदि की आशा (मोह) से रहित होकर अज्ञात (गुप्त) तप करना, (८) लोभ का परित्याग करना, (९) तितिक्षा (सहिष्णुता) बढ़ाना, (१०) ऋजुता = सरलता रखना, (११) शुचि = (सत्य एवं संयम की पवित्रता) रखना, (१२) सम्यक्त्व-शुद्धि = सम्यक्दृष्टि, (१३) समाधिस्थ = प्रसन्नचित्तता, (१४) आचार-पालन में माया न करना, (१५) विनयशील होना, (१६) धृतिपूर्वक (धैर्य के सहित) मतिमान होना, (१७) संवेगयुक्त होना (मोक्षाभिलाषी होना अथवा सांसारिक भोगों से भीरु होना), (१८) प्रणिधि = माया-कपट न करना, (१९) सुविधिपूर्वक सदनुष्ठान करना, (२०) संवरयुक्त (आम्रवों के निरोधयुक्त) होना, (२१) अपने दोषों की शुद्धि (निरोध) करना, (२२) समस्त कामभोगों से विरक्त रहना, (२३) मूलगुणों का शुद्ध (निरतिचार) पालन (शुद्ध प्रत्याख्यान) करना, (२४) उत्तरगुणों का शुद्ध पालन करना, (२५) व्युत्सर्ग (तप) की साधना करना, (२६) प्रमाद न करना, (२७) प्रतिक्षण संयमयात्रा में सावधानी रखना (समाचारी-पालन में दत्तचित्त रहना, (२८) शुभ ध्यान एवं संवरयोग करना, (२९) मारणान्तिक कष्ट आने पर भी १. (क) समवायांगसूत्र, समवाय ३२ (ख) 'श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण (ग) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' (आचार्य श्री आत्माराम जी म.) से भाव ग्रहण, पृ. २३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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