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________________ ® बत्तीस योग-संग्रह : मोक्ष के प्रति योग, उपयोग और ध्यान के रूप में ® १०५ * -पड़ती है। अन्यथा, अहिंसा आदि व्रतों, नियमों, दानादि धर्म या सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म के आचारण या पालन में पुरुषार्थ की आवश्यकता क्या है ? सभी कुछ बिना सम्यक् पुरुषार्थ किये ही भगवान, देवता या भाग्य से प्राप्त हो जायेंगे।' प्राप्त साधनों के दुरुपयोग या अनुपयोग से साध्य-प्राप्ति संभव नहीं किन्तु मोक्षरूपी साध्य को प्राप्त करने के लिए साधक को जो त्रिविध मुख्य साधन मिले हैं, वह उनका दुरुपयोग करे या उपयोग ही न करे, तो उससे साध्य की प्राप्ति कोसों दूर हो जाती है। तीन कोटि के मानव : पतित, यांत्रिक और समुन्नत संसार में मुख्यतया तीन कोटि के मनुष्य पाये जाते हैं। कुछ व्यक्ति बुरी तरह पिछड़े हुए, अन्ध-विश्वासों में डूबे हुए, अभावग्रस्त, असन्तुष्ट जीवन से निराश-हताश या आत्म-विश्वासहीन, संक्षोभों में जकड़े हुए, विपन्न एवं दुःखित अवस्था में जी रहे हैं। कुछ ऐसे हैं, जो न दुःखी हैं, न सुखी; न पतित हैं, न समुन्नत; किन्तु किसी प्रकार यंत्रवत् जी रहे हैं, वे अपने त्रिविध साधनों का उपयोग न करके तमोगुणाच्छन्न होकर आलस्य और पुरुषार्थहीन जीवन बिता रहे हैं। तीसरी कोटि के कुछ मनुष्य ऐसे हैं, जो विचारक, तत्त्वज्ञ हैं, अपने जीवन का, अपनी आत्मा की उन्नति-अवनति का, हिताहित का विचार करते हैं, वे ऊँची बातें सोचते हैं, दूरदर्शी हैं, अग्रशोची हैं तथा उत्कृष्ट व्यवहार और आचरण करते हैं। वे प्रतिक्षण जागरूक रहकर अपनी आत्मा को यथासंभव विषय-वासनाओं, राग-द्वेषों या कषायों-नोकषायों के विकारों से, कर्मबन्ध के कारणों से दूर रखने और भूल होने, दोष होने या अपराध हो जाने पर यथाशीघ्र अपनी शुद्धि करने का ध्यान रखते हैं। . साध्य-प्राप्ति के लिए आत्म-साधना का अधिकारी कौन और क्यों ? .. . ' इन तीनों कोटि के सभी मनुष्यों को पूर्वोक्त त्रिविधयोगरूप साधन जन्म के समय अविकसित रूप में मिलते हैं। इन तीनों कोटि के मानवों की काया की रचना · में, इन्द्रियों की उपलब्धि में तथा अंगोपांगों की प्राप्ति में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। दशविध प्राणों तथा मनःसंस्थान की प्राप्ति में भी कोई खास फर्क नहीं होता। अन्य साधना या परिस्थितियों का थोड़ा-बहुत अन्तर भी नगण्य होता है। किन्तु पतित, यांत्रिक और समुन्नत, इन तीनों कोटि के मनुष्यों में अन्तर है तो चेतना के विकास में है। अर्थात् तीसरी कोटि वाले की चेतना का ऊर्ध्वारोहण तीव्रता से हो १. 'समतायोग' (रतन मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ४११-४१२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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