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________________ * १०० * कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ पंचविधयोग का अन्तर्भाव मनःसमिति और मनोगुप्ति में भी उक्त पंचविधयोग का अन्तर्भाव मनःसमिति और मनोगुप्ति में भी हो जाता है। मनःसमिति में मन की शुभ प्रवृत्ति प्रधान है और मनोगुप्ति में मन की एकाग्रता और निरोध ही मुख्य है। इस प्रकार मन के विषय में समितिगुप्ति द्वारा सत्प्रवृत्ति, एकाग्रता और निरोध, ये तीन विभाग प्राप्त होते हैं। अध्यात्म और भावना, इन प्रथम के दो योगों में सत्प्रवृत्तिरूप मनःसमिति की प्रधानता रहती है तथा ध्यान और समता, इन दोनों में एकाग्रतारूप मनोगुप्ति की मुख्यता है एवं वृत्तिसंक्षय नामक पंचम योग में सम्यक् निरोधरूप मनोगुप्ति प्राप्त होती है। इस प्रकार योगारम्भ में सत्प्रवृत्तिरूप मनःसमिति और सम्प्रज्ञात में एकाग्रतारूप और असम्प्रज्ञात में निरोधरूप मनोगुप्ति प्राप्त होती है। निरोधरूप गुप्ति की अवस्था में तीन भाव प्राप्त होते हैं-कल्पनाजाल से विमुक्त, समभाव में सुप्रतिष्ठित और स्वरूपरमण में प्रतिबद्ध होना। मनोगुप्ति के ये तीनों ही भाव तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में प्रतिफलित होते हैं। निरोधरूप संस्कार शेष (प्रथम) असम्प्रज्ञात में कल्पनाजाल से निवृत्ति और समभाव में प्रतिष्ठा प्राप्त होती है तथा (द्वितीय) असम्प्रज्ञात में स्वरूप प्रतिष्ठारूप कैवल्य-मोक्षदशा में मनोगुप्ति के निरोध लक्षण परिणाम का स्वरूप प्रतिबद्धता का लाभ होता है।' चतुर्विधयोगों के बावजूद भी पंचम योग की आवश्यकता क्यों ? __ पूर्वोक्त चार योगों की साधना के बावजूद भी वृत्तिसंक्षययोग की आवश्यकता इसलिए है कि यह आत्मा स्वभाव से तो निस्तरंग महासमुद्र के समान निश्चल है। किन्तु जैसे वायु के सम्पर्क से समुद्र में तरंगें उठने लगती हैं, इसी प्रकार मन और शरीर के संयोगरूप वायु से आत्मा में संकल्प-विकल्प और परिस्पन्दन-चेष्टारूप नाना प्रकार की वृत्तिरूप तरंगें उठने लगती हैं। इनमें विकल्परूप वृत्तियों का उदय मनोद्रव्य-संयोग से होता है और चेष्टारूप वृत्तियाँ शरीर-सम्बन्ध से उत्पन्न होती हैं। अतः विकल्परूपा और चेष्टारूपा इन द्विविध वृत्तियों का समूल नाश ही वृत्तिसंक्षय है, वृत्तिसंक्षय का प्रयोजन है। यह वृत्तिसंक्षय नामक योग केवलज्ञान की प्राप्ति के समय तथा निर्वाण-प्राप्ति के समय साधक को उपलब्ध होता है। यद्यपि वृत्ति-निरोध अन्य ध्यानादि योगों में भी होता है, किन्तु समस्त वृत्तियों का सर्वथा निरोध इसी योग में सम्भव है। १. (क) 'जैनागमों के अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. २६-२७ (ख) विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम्। आत्मारामं मनश्चेति मनोगुप्तिस्त्रिधोदिताः। -योगभेद द्वात्रिंशिका, श्लो. ३० २. (क) इह स्वभावत एव निस्तरंग-महोदधिकल्पस्यात्मनो विकल्परूपाः परिस्पन्दनरूपाश्च वृत्तयः सर्वा अन्य संयोगनिमित्ता एव। तत्र विकल्परूपास्तथाविध-मनोद्रव्य-संयोगात्, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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