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________________ ८४ कर्मविज्ञान : भाग ८ (३) ध्यानयोग ध्यान का अर्थ, लक्षण और स्वरूप ध्यान शब्द ‘ध्यै चिन्तायाम्’ इस धातु से निष्पन्न होता है, इसलिए ध्यान का व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ तो चिन्ता या चिन्तन करना होता हैं, किन्तु इसका प्रवृत्ति - लभ्य अर्थ और फलितार्थ तो दूसरा ही होता है, वह है - चित्तनिरोध द्वारा आत्म-निरीक्षण या आत्म-साक्षात्कार । इस दृष्टि से मन का निरीक्षण मानसिक, वचन का निरीक्षण वाचिक एवं काया का निरीक्षण एवं स्थिरीकरण कायिक ध्यान होता है । वैसे ध्यान चित्तनिरोध के बिना हो नहीं सकता । चित्तनिरोध के साथ चिन्तननिरोध का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । चित्त की चंचलता और चिन्तन की व्यग्रता का प्रवाह जब अनेक विषयों में से किसी एक विषय का अवलम्बन लेकर. उसमें स्थिर तथा एकाग्र हो जाता है, उसे ही ज्ञानी महापुरुषों ने 'ध्यान' कहा है। इसका परिष्कृत लक्षण 'प्रश्नव्याकरण' के पंचम संवरद्वार में मिलता है - "स्थिर दीपशिखा के समान निष्प्रकम्प एवं निश्चल तथा मन में अन्य विषय के संचार से रहित केवल एक ही विषय का प्रशस्त सूक्ष्म बोध जिसमें हो, वह ध्यान कहलाता है ।" ' तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार - " अन्तर्मुहूर्त - पर्यन्त एक ही विषय पर चित्त की सर्वथा एकाग्रता, यानी ध्येय - विषय में एकाकारवृत्ति के प्रवाहित होने का नाम ध्यान है ।" ध्यान में चित्त और चिन्तन की स्थिरता के लिए तीन बातें अपेक्षित ध्यान के उक्त लक्षणों के अनुसार चित्त की एकाग्रता और स्थिरता ही ध्यान में मुख्य होती है। चित्तस्थैर्य या चित्तैकाग्रता के लिए तीन बातें ध्यान-साधना में सहायक के रूप में अपेक्षित होती हैं - भावना, अनुप्रेक्षा और एकाग्र चिन्ता । ' ध्यान की परिभाषाएँ 'आवश्यकनिर्युक्ति' में ध्यान की परिभाषा की गई है - "चित्तस्स एगग्गया हवइ झाणं ।'' - चित्त की एकाग्रता ही ध्यान है । किन्तु छद्मस्थ अवस्था में चित्त की एकाग्रता कब तक और कैसे रह सकती है ? इसी अपेक्षा से ध्यान का परिष्कृत लक्षण किया गया है - अन्तर्मुहूर्त - पर्यन्त एक ही विषय में चित्त की सर्वथा एकाग्रता ध्यान है, अर्थात् ध्येयविषय में एकाकारवृत्ति का प्रवाहित होना ध्यान है। इस प्रकार शुभ एकाग्रध्यान में संवर और निर्जरा की उभयशक्ति निहित है। Jain Education International 9. ( क ) ' योग- प्रयोग - अयोग' से भाव ग्रहण, पृ. २०७-२०८ (ख) निवाय -सरणप्पदीपज्झाणमिवनिप्पकंपे। (ग) उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्ता -निरोधोध्यानम् । (घ) ध्यायते चिन्त्यतेऽनेन तत्त्वमितिध्यानम । -अभिधान - प्रश्नव्याकरणसूत्र, पंचम संवरद्वार - तत्त्वार्थसूत्र, अं. ९, सू. २७ राजेन्द्र कोष, भा. ४, पृ. १६६२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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