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________________ * ८० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ * पाठ मिलता है-“संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ।'-संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित (वासित) करता हुआ विचरण करता है। कोई भी अध्यात्म-जीवन विकासक शब्द अन्तःकरण द्वारा बार-बार विचारों में आप्लावित किया जाता है, अर्थात् चिन्तनचक्र पर चढ़ाया जाता है, तब वही विचार भावना का रूप ले लेता है। इसीलिए 'आवश्यकसूत्र' की हारिभद्रीय टीका में भावना का परिमार्जित अर्थ बताया गया है जिसके द्वारा मन (अन्तःकरण) को भावित किया जाए, उसे भावना कहते हैं। इसी भावित करने का अर्थ भी वासित करना कहा गया है। भावना को आचार्य मलयगिरि ने ‘परिक्रम' भी कहा है, जिसका अर्थ भी वही होता है-विचारों का बार-बार परिक्रमण करना, अर्थात निर्धारित विचारों के चारों ओर चक्कर लगाना, भावना से बराबर भावित करना।' आगमों में कहीं-कहीं तथा तत्त्वार्थसूत्र में अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाओं को अनुप्रेक्षा भी कहा गया है। शुभ ध्यान के प्रकरण में स्थानांगसूत्र आदि में चार-चार अनुप्रेक्षाएँ बताई गई हैं। बारह अनुप्रेक्षाओं, मैत्री आदि चार भावनाओं के स्वरूप, प्रकार, कार्य, पद्धति, प्रयोग और परिणामों तथा उपलब्धियों के विषय में विस्तृत रूप से छह निबन्धों में वर्णन कर चुके हैं, इसलिए यहाँ पिष्टपेषण करना उचित नहीं होगा। भगवतीसूत्र आदि आगमों में भावनायोग के सम्बन्ध में विस्तृत एवं गम्भीर चिन्तन मिलता है। भगवतीसूत्र' में भावितात्मा की आध्यात्मिक शक्तियों, भौतिक सामर्थ्यो और उपलब्धियों का व्यवस्थित एवं युक्तिसंगत चिन्तन मिलता है। भावनाओं की ऊर्जा शक्ति का माप वर्तमान मनोविज्ञानशास्त्रियों ने भावनाओं की ऊर्जा शक्ति का माप भी निकाला है। सामान्य रूप से भावों का कम्पन प्रति सेकंड पाँच हजार धारा की आवृत्तियों को प्रेषित कर लेता है। उसका अत्यन्त उत्कृष्टतापूर्वक प्रेषण २,५00 चक्र प्रति सेकंड की आवृत्ति का है। भावना की गति तो इससे भी तीव्र है। जो भी हो, भावना के सातत्य की लहरें बनकर आकाश-मण्डल में फैलती हैं और वहाँ से अपनी सजातीय भावनाओं को लेकर लौटती हैं। दूर विचार प्रेषण उपलब्धि तीव्र भावना का ही प्रयोग है। १. (क) आवश्यकसूत्र हारि. वृत्ति ४ (ख) अभिधान राजेन्द्र कोष, भा. ५, पृ. १५०५ २. देखें-भावना के विशेष महत्त्व, स्वरूप, प्रकार, परिणाम आदि के विस्तृत वर्णन के लिए कर्मविज्ञान, भा. ६, निबन्ध ११-१७ ३. देखें-भावितात्मा अनगार के समुद्घात, वैक्रिय शक्ति, भौतिक, आध्यात्मिक क्षमता आदि के लिए भगवतीसूत्र, श. ३, उ. ४-६ ४. योग-प्रयोग-अयोग' से भावांश ग्रहण, पृ. १९६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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