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________________ कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ७७ अन्दर में दूसरे की घात, हानि या वंचना का प्लान बनाता रहता है। मायी को शास्त्रकारों ने मिथ्यादृष्टि कहा है, अमायी सम्यग्दृष्टि होता है । ' सरल आत्मा शुद्ध होती है, उसी में धर्म टिकता है जो सरल होता है, उसी के मन-बुद्धि- हृदय शुद्ध होते हैं और धर्म टिकता है शुद्ध हृदय में। जहाँ वक्रता है, वंचना है, माया है, वहाँ शुद्ध धर्म नहीं टिकता | २ माया कषाय से बचने के उपाय और लाभ यदि माया कषाय से बचना है तो जीवन में, मन-वचन-काया में, हृदय और बुद्धि में सरलता, सत्यता, उदारता, अतुच्छता, मृदुता, आत्मौपम्यभावना, कोमलता, दया, सहानुभूति आदि सद्गुणों को अपनाना जरूरी है। 'दशवैकालिकसूत्र' में कहा गया- “आर्जव (सरलता के) भाव से माया को नष्ट करो।" "उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा गया है - "माया पर विजय प्राप्त करने से साधक ऋजुता ( सरलता) को अर्जित कर लेता है । माया वेदनीय कर्म नहीं बाँधता । पहले बँधा हुआ हो तो उसकी निर्जरा कर लेता है। औषधियों से जैसे रोग मिटाते हैं, वैसे ही जगत् के साथ द्रोह करने वाली सर्पिणी की तरह मायारूपी व्याधि को मिटाना हो तो जगत् को आनन्द देने वाले आर्जवभाव से मिटाओ । माया सहित आलोचना करने वाला साधक भले ही बड़ा तपस्वी हो, उच्च पदवीधर हो, आराधक अभीष्ट नहीं हो सकता। वह विराधक होकर अपना संसार बढ़ाता रहता है। अतः माया का त्याग ही साधक के लिए अभीष्ट है। लोभ कषाय : समस्त दुर्गुणों और दोषों की खान चौथा लोभ कषाय है। यह चारों कषायों में सर्वाधिक प्रबल है। शास्त्र में बताया- “लोभ सर्वविनाशक है । " ३ अर्थात् लोभ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, क्षमा, दया, शील, सन्तोष आदि सभी गुणों की हत्या कर देता है। लोभी मनुष्य धर्म, कर्म, पुण्य, पाप, हित-अहित, कल्याण - अकल्याण, कार्य - अकार्य का कोई विचार नहीं करता । इसीलिए कहा है- " समस्त पापों का निमित्त लोभ ही है, जो चातुर्गतिक संसार में बार-बार परिभ्रमण का कारण है।" "लोभ सब दोषों की खान है । समस्त गुणों को ग्रसित करने में राक्षस के समान है।" वह समस्त १. (क) दम्भो मुक्तिलतावह्निर्दम्भी राहुः क्रियाविधौ । दौर्भाग्यकारणं दम्भो, दम्भोऽध्यात्मसुखार्गला ॥ (ख) माई मिच्छादिट्ठी, अमाई सम्मट्ठी । २. सोही उज्जूय भूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ | ३. लोभो सव्व विणासणो । Jain Education International - भगवतीसूत्र - उत्तराध्ययन, अ. ३, गा. १२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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