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________________ * ५४ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ * दृढ़ रहने की। दुर्लभतम जिन-वचन मुझे अतिशय पुण्ययोग से मिला है। अब अगर मैं अतिदुर्लभ जिन-वचन को पाकर इसकी आराधना नहीं करता हूँ तो मेरा मनुष्य-जन्म सार्थक नहीं होगा, जिनेन्द्र भगवान का भक्त कहलाना भी व्यर्थ होगा। अतः क्षमा आदि जिन-वचनों का पालन करने में मेरी आत्मा स्वतन्त्र है, समर्थ हैं, मुझे अत्यन्त लाभ भी है, फिर क्रोधादि कषायों का निमित्त मिलने पर भी मुझे क्षमादि की आराधना करके जिन-वचन-प्राप्ति को सफल करना चाहिए, जिनेन्द्र-भक्त कहलाने का गौरव और अधिकार भी मुझे तभी प्राप्त होगा। पद-पद पर क्रोधादि कषाय करने वाले में वीतराग धर्म की समझ कहाँ ? क्रोधादि कषायों को उपशान्त करने या रोकने का एक उपाय यह भी है कि वीतराग प्रभु के धर्म को मैंने समझा है, श्रद्धा-भक्ति, प्रतीति और रुचिपूर्वक अंगीकार किया है, वीतरागता-प्राप्ति के लिए मुझे मनुष्य-जन्म, उत्तम कुल, स्वस्थ शरीर, आर्यक्षेत्र, उत्तम धर्म आदि सभी साधन मिले हैं, इतना होने के बावजूद भी अगर मैं क्रोधादि कषाय-नोकषाय पद-पद पर करता हूँ, तो एक तो वीतरागताप्राप्ति के प्रति लापरवाह बनता हूँ, वीतराग प्रभु के प्रति गैर-वफादार बनता हूँ, इससे मेरी जैनधर्म के प्रति श्रद्धा, समझ और भक्ति भी खण्डित होती है। अतः अगर हम वीतराग के धर्म को समझकर भी शान्त, उदार, पवित्र, सन्तोषी, सरल, मृदु (नम्र) बनने के बदले क्रोधी, कृपण, लोभी, कुटिल, अभिमानी आदि बनते हैं तो हमने धर्म को समझा ही कहाँ ? तीव्र क्रोधादि करने में हमारी धर्म की समझदारी खण्डित होती है, हम उच्च-उच्चतर गुणस्थान पर आरोहण करने के बदले निम्न-निम्नतर गुणस्थान की कक्षा में उतर जाते हैं। ___ हमारे पूर्वज महापुरुषों ने तो समय आने पर क्षमादि धर्म का परिचय देकर धर्म की समझ बरकरार रखी है, तुच्छ अहंकार, रोष, द्वेष आदि कषायों को हृदय से निकाल फेंका है।२ पुण्य बेचकर कषायों को खरीदने से सावधान ___ अब एक मुद्दा और रह जाता है-पुण्य बेचकर कषायों को खरीदने के मूर्ख धन्धे को रोकने का। अकषाय-संवर के साधक को अपना अन्तर्निरीक्षण-परीक्षण करते रहना है कि पूर्वकृत पुण्य से अनेक प्रकार की सुख-सामग्री, समृद्धि, सुविधा, सम्मान, प्रतिष्ठा, अच्छा संस्कारी परिवार आदि मिले और मिलते हैं, किन्तु व्यक्ति १. 'दिव्यदर्शन', दि. २७-१०-९० के अंक से भाव ग्रहण, पृ. ५० २. वही, दि. २७-१०-९० के अंक से भाव ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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