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________________ * अकषाय- -संवर: : एक सम्प्रेरक चिन्तन भरत चक्रवर्ती का अकषाय के विषय में चिन्तन भरत चक्रवर्ती के अन्तःकरण में यह बात भलीभाँति ठस गई थी कि क्या मेरी स्वतंत्रता इस विशाल सत्ता, समृद्धि और भोग- सामग्री पर है ? अथवा शुभ (पुण्य) कर्मों के कारण प्राप्त हुई इस समस्त सामग्री को आसक्तिपूर्वक भोगने में है या टिकाने में है ? उनकी अन्तर्दृष्टि ने कहा - "नहीं, इनमें से किसी पर मेरी स्वतंत्रता नहीं है, मेरी स्वतंत्रता संसारवर्द्धक रागादि या कषायादि शत्रुओं या कर्मों को दबाने में है। मैं चाहूँ तो इन्हें दबा - मिटा सकता हूँ और चाहूँ तो इन्हें बढ़ा भी सकता हूँ। किन्तु सत्ता, समृद्धि या भोग सामग्री पाने में या स्वेच्छापूर्वक भोगने में भी मैं स्वतंत्र नहीं हूँ। कर्मों की वक्र दृष्टि हो तो क्षणभर में इन सबका विलय हो सकता है। मेरी इच्छा से न तो ये मिले हैं और न ही मेरी इच्छानुसार असंख्यकाल तक टिके रहने वाले हैं। करोड़ों, अरबों मानव इच्छा करें तो भी ऐसी सत्ता, समृद्धि या भोग-सामग्री नहीं मिलती। मुझसे पहले भी अनेक चक्रवर्ती हुए, उनकी इच्छा के विरुद्ध सारी सत्ता, समृद्धि आदि नष्ट हो गई। इसलिए इनके मिलने या टिकने में जीव की इच्छा किसी काम नहीं आती । जीव (आत्मा) का इसमें कुछ भी स्वातंत्र्य नहीं है। तब फिर इन नश्वर वस्तुओं पर क्यों आसक्ति, आकर्षण या प्रीति की जाए ? Jain Education International "मुझे श्रेष्ठ आत्म - स्वातंत्र्य मिला है, तो क्यों नहीं मैं कषायों तथा कर्मों के कारण चली आई हुई भव - परम्परा का अन्त करने का पुरुषार्थ करूँ ? इस श्रेष्ठ स्वतंत्रता का उपभोग करके मैं मोक्ष सुख (सर्वकर्ममुक्ति से प्राप्त आत्मिक आनन्द ) और आत्मिक स्वस्थता प्राप्त करूँ, इसी में मेरे जीवन की सार्थकता है । यदि सत्ता, समृद्धि या भोग - सामग्री के आधीन होकर मैं बेखटके इनका उपभोग करने लग जाऊँगा तो इनकी पराधीनता से पूर्वकृत पुण्य तो खोऊँगा ही, साथ ही .संवर-निर्जरारूप धर्म से वंचित होकर कषायादि के कारण भव- परम्परा में वृद्धि भी कर लूँगा और फिर इनकी पराधीनता से अस्वस्थता, विह्वलता, संताप, दुःख, दैन्य आदि ही बढ़ेंगे, जिनसे फिर कषायवश कर्मबन्धन करके अनन्त जन्म-मरण की भव- परम्परा ही बढ़ेगी। इसलिए इतनी बड़ी सत्ता, समृद्धि आदि में मेरी ( आत्मा की) स्वतंत्रता नहीं और न ही इन्हें टिकाये रखने में मेरी स्वतंत्रता है, फिर मैं क्यों इनके मोह में पहूँ, क्यों इनके पीछे पागल होकर अहंकार, लोभ, क्रोध, माया, द्वेष आदि करके कषायों और कर्मों की परतंत्रता स्वीकारूँ ? जो आत्मिक स्वतंत्रता मुझे कषाय या रागादि एवं कर्मरूपी आन्तरिक शत्रुओं को दबाने, उखेड़ने, रोकने या नष्ट करने हेतु मिली है, उसे निष्क्रिय रखकर क्यों खोऊँ? क्यों उस श्रेष्ठ स्वातंत्र्य को इन क्षणिक वस्तुओं के प्रति अन्धराग रखकर नष्ट करूँ ? अतः मैं अपनी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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