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________________ * शीघ्र मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय : अविपाक निर्जरा ४८५ अविपाक निर्जरा कब और कैसे-कैसे ? अविपाक निर्जरा का साधक कैसा होना चाहिए ? इस विषय में अवश्य विचार करना चाहिए। उस साधक के हृदय में वैराग्य की दिव्य ज्योति जगमगा उठती है। 'आचारांगसूत्र' की भाषा में - " जो साधक (संयम में) उत्थित ( उद्यत ), स्थितात्मा ( आत्म - भावों में स्थित ), अस्नेह, अनासक्त और अविचल ( परीषहों और उपसर्गों, कष्टों, रोगों आदि से अप्रकम्पित) हो, चल (विहारचर्या करने वाला) हो, अपने अध्यवसाय (लेश्या) को संयम से बाहर न ले जाने वाला हो तथा अप्रतिबद्ध होकर परिव्रजन (विहरण) करता हो । अविपाक निर्जरा के साधक में शरीर और शरीर से सम्बद्ध व्यक्तियों या वस्तुओं के प्रति ममत्वभाव नहीं होता । वह आत्मा को इनसे अलग एकाकी समझता है। भेदविज्ञान उसके रग-रग में जाग्रत हो जाता है। वह विभावभावों से विरक्त होकर स्व-स्वभाव में लीन हो जाता है । जब साधक के हृदय में संसार की आशा तृष्णा का अन्त हो जाता है और उसका चित्त सविकल्प समाधि में से निकलकर निर्विकल्प समाधि में पहुँच जाता है, तब वह अपने पूर्व-संचित कर्मों को निर्जरा की साधना से सर्वथा क्षय कर डालता है। इसके विपरीत यदि चित्त में निर्विकल्प समाधिभाव नहीं आया अथवा स्व-स्वभाव में रमण नहीं हुआ, तो कदापि संसार की आशा तृष्णा का अन्त नहीं हो सकेगा । ऐसा न होने से निर्विकल्प समाधि कैसे प्राप्त हो सकती है ? निर्विकल्प समाधि दशा प्राप्त न होने पर सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष की प्राप्ति के लिये अविपाक निर्जरा का साहस वह कथमपि नहीं कर सकेगा। यद्यपि निर्विकल्प समाधिदशा प्राप्त होने पर भी उक्त सदेह वीतराग केवलज्ञानी पुरुष का आयुष्य लम्बा हो तो आयुष्यपूर्ण होने तक सर्वकर्ममुक्ति (विदेहमुक्ति) नहीं मिल सकती। हाँ, सदेहमुक्ति तो निर्विकल्प दशा प्राप्त होते ही मिल जाती है। अतः निर्विकल्प समाधिभाव या स्व-स्वभावरमणत्व प्राप्त नहीं हुआ तो वह साधक चाहे जितना तप करे, क्रियाकाण्डों का पालन करे, कितना भी जप, स्वाध्याय या ध्यान करे अथवा उत्कृष्ट आचार का पालन करे। कदापि मोक्षरूप साध्य को सिद्ध नहीं कर सकेगा। अतः अविपाक निर्जरा के द्वारा शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के लिए भेदविज्ञान, स्व-स्वभावरमणता एवं अन्त में निर्विकल्प समाधिभाव आना अत्यावश्यक है । ' पिछले पृष्ठ का शेष (ग) देखें - आवश्यक कथा में खन्धक मुनि का वृत्तान्त (घ) देखें - आवश्यक कथा में प्रसन्नचन्द राजर्षि का वृत्तान्त १. (क) एवं से उट्ठिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिलेस्सं परिव्वए । (ख) 'अध्यात्म प्रवचन' से भाव ग्रहण, पृ. ९४ Jain Education International - आचारांग, श्रु. १, अ. ७, उ. ५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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