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________________ ॐ ४३६ * कर्मविज्ञान : भाग ७ * से शीघ्र सक्रिय होती है। जैसा कि आचार्य अमितगति ने सामायिक पाठ में वीतराग प्रभु से इसी भेदविज्ञान की प्रार्थना की है-“हे वीतराग प्रभो ! आपकी अपार कृपा से मेरी आत्मा में ऐसी आध्यात्मिक शक्ति प्रगट हो कि मैं अपनी अनन्त शक्तिमान् निर्दोष (शुद्ध) आत्मा को इस क्षण-भंगुर शरीर से उसी प्रकार अलग कर सकूँ या पृथक् समझ सकूँ, जिस प्रकार म्यान से तलवार अलग की या समझी जाती है।" जब शरीर को म्यान और आत्मा को तलवार के समान कायोत्सर्ग में पृथक्-पृथक् समझने की भावना या भिन्नत्व की अनुभूति होती है, तब शरीर में चाहे जितनी वेदना, पीड़ा, उपसर्ग या प्रहार हो, उसकी अनुभूति से साधक सर्वथा. दूर चला जाता है। उसे शरीर की पीड़ा या दर्द से कोई संबंध नहीं रहता, वह अपने आत्म-ध्यान में स्थिर या लीन हो जाता है। देह में रहते हुए भी देहभाव से सर्वथा मुक्त-अलिप्त-सा हो जाता है।' शरीर के प्रति अपनापन छोड़ने वाले कायोत्सर्ग वीर सुकौशल मुनि प्राचीन धर्मग्रन्थों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं कि अमुक साधु, मुनि, श्रमण या सुविहित साधक घोर जंगल में, एकान्त जनशून्य स्थान में या श्मशान में कायोत्सर्ग करके खड़े होते हैं, उस समय वे देहभाव से ऊपर उठकर आत्मा की परम ज्योति या आत्म-भावों में लीन हो जाते हैं। उस समय उन्हें भयंकर उपसर्ग होते हैं, कोई मारता है या प्रहार करता है अथवा शरीर का छेदन-भेदन करता है, किन्तु कायोत्सर्ग-साधक ऐसे स्थिर खड़ा रहता है मानो यह शरीर उसका है ही नहीं। .. कीर्तिधर मुनि और सुकौशल मुनि दोनों गृहस्थपक्षीय पिता-पुत्र थे। एक बार दोनों ने पर्वत की गुफा में चातुर्मास किया। कार्तिक पूर्णिमा के दिन चातुर्मासिक तप का पारणा करने हेतु दोनों मुनि नगर की ओर बढ़ रहे थे। सुकौशल मुनि की गृहस्थपक्षीय माता सहदेवी पुत्र-मोहवश आर्तध्यानपूर्वक मरकर उसी वन में व्याघ्री बन गई। भूख से व्याकुल विकराल व्याघ्री को सामने आते देख दोनों मुनि कायोत्सर्गस्थ हो गये, शरीर का व्युत्सर्ग कर आत्म-भावों में रमण करने लगे। व्याघ्री सुकौशल मुनि के शरीर पर झपट पड़ी। उसने मुनि के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। किन्तु वे जरा भी विचलित नहीं हुए। कीर्तिधर मुनि ने भी १. (क) तितिक्खं परमं नच्चा, भिक्खू धम्मं समायरे। -उत्तराध्ययन, अ. २, गा. २६ (ख) तितिक्खं परमं नच्चा, विमोहन्नघरं हियं। -आचारांग, श्रु. १, अ. ८, उ. ५ (ग) शरीरतः कर्तुमनन्तशक्तिं विभिन्नमात्मानमपास्तदोषम्। जिनेन्द्र ! कोषादिव खड्गयष्टिं तव प्रसादेन ममाऽस्तु शक्तिः।। -सामायिक पाठ, श्लो. २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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