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________________ ॐ ४१४ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ * शुक्लध्यान और परम शुक्लध्यान। ये भेद इस ध्यान की परम विशुद्धता और स्थिरता की न्यूनाधिकता को लेकर किये गये हैं। चतुर्दशपूर्वी का ध्यान शुक्लध्यान है। केवलज्ञानी का ध्यान परम शुक्लध्यान होता है। स्वरूप की दृष्टि से शुक्लध्यान के चार प्रकार हैं-(१) पृथक्त्व-वितर्क-सविचार, (२) एकत्व-वितर्क-अविचार, (३) सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती, और (४) समुच्छिन्न-क्रियाऽनिवृत्ति। . .. पृथक्त्व-वितर्क-सविचार-इस ध्यान में तर्कयुक्त चिन्तन के माध्यम से श्रुतज्ञान के विविध भेदों का गहराई से चिन्तन किया जाता है। इसमें द्रव्य, गुण और पर्याय में से कभी द्रव्य पर, कभी गुण पर और कभी पर्याय पर भेद-प्रधान चिन्तन किया जाता है। एकत्व-वितर्क-अविचार-जब भेद-प्रधान चिन्तन करते हुए मन स्थिर हो जाता है, तब जो अभेद-प्रधान चिन्तन (किसी एक द्रव्य पर या उसकी एक पर्याय पर) किया जाता है, वह एकत्व-वितर्क-अविचार ध्यान होता है। इस ध्यान में वस्तु के एक रूप को ध्येय बनाया जाता है। इसमें साधारण या स्थूल विचार स्थिर हो जाते हैं, सूक्ष्म विचार चलते हैं, इसलिए इसे निर्विचार ध्यान कहा जाता है। क्योंकि इसमें एक ही वस्तु पर विचार स्थिर होता है। सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती-इस ध्यान में अत्यन्त सूक्ष्मक्रिया चलती है। जिस विशिष्ट साधक को यह स्थिति प्राप्त हो जाती है, वह पुनः ध्यान से च्युत नहीं होता, इसीलिए इसे सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती कहा गया है। केवलज्ञान केवलदर्शन-प्राप्त सर्वज्ञ वीतराग ही इस ध्यान के अधिकारी हैं, छद्मस्थ नहीं। योग निरोध की प्रक्रिया के समय जब केवल सूक्ष्म काययोग यानी मात्र श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया शेष रहती है, उस स्थिति का ही यह ध्यान है। ___ समुच्छिन्न-क्रियाऽनिवृत्ति-यह शुक्लध्यान की अन्तिम भूमिका है। शुक्लध्यान के तीसरे चरण में केवल श्वासोच्छ्वास की क्रिया रहती है, पर इसमें तो श्वासोच्छ्वास का भी निरुन्धन हो जाता है। इसमें मन-वचन-काया के योगों की चंचलता पूर्ण रूप से समाप्त होकर आत्म-प्रदेश पूर्णतया निष्कम्प हो जाते हैं। आत्मा तेरहवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान में पहुँच जाती है। यह निष्कम्प शैलेशी अवस्था है। इसलिए इसे समुच्छिन्न-क्रियाऽनिवृत्ति शुक्लध्यान कहा जाता है। इस ध्यान के प्रभाव से शेष रहे चार अघातिकर्म (वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुकर्म) भी नष्ट हो जाते हैं, जिससे वह आत्मा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त परमात्मा हो जाती है। १. (क) पृथक्त्वैकत्व-वितर्क-सूक्ष्म-क्रियाऽप्रतिपाति-व्युपरतक्रियानिवृत्तीनि। -तत्त्वार्थसूत्र ९/४१ (ख) 'जैन आचार : स्वरूप और सिद्धान्त' से भाव ग्रहण, पृ. ६०४-६०५ (ग) सुक्के झाणे चउव्विहे चउप्पडोवयारे प. तं.-पुहुत्तवितक्के सवियारी, एमत्तवितक्के अवियारी, सुहुमकिरिते अणियट्टी, समुच्छिन्न-किरिए अप्पडिवाती। -भगवती, श. २५, उ. ७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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