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________________ ॐ स्वाध्याय और ध्यान द्वारा कर्मों से शीघ्र मुक्ति 8 ३९३ 8 श्रमणसंघ के धर्म) का अवलम्बन लेता है। तीर्थधर्म का अवलम्बन लेने वाला साधक महानिर्जरा और महापर्यवसान करता है। यह है वाचना का अनन्तर और परम्परागत फल। पृच्छना-पढ़ने या वाचना लेने के पश्चात् किसी विषय में शंका हो तो जिज्ञासा एवं विनयपूर्वक उस विषय के विद्वान् या विशेषज्ञ से पूछना, अपनी शंका या जिज्ञासा का समाधान करना अथवा उक्त विषय में जिज्ञासा बुद्धि से धर्मचर्चा करना पृच्छना है। यह भी ज्ञान-प्राप्ति अथवा ज्ञान-वृद्धि करने का महत्त्वपूर्ण स्वाध्यायांग है। जिज्ञासापूर्वक विनयभाव से अपनी शंका, सन्देह या संशय प्रगट करना प्रबुद्ध चेतना का लक्षण है। शास्त्रों में यत्र-तत्र गणधर गौतम स्वामी द्वारा भगवान महावीर के समक्ष अपनी शंकाएँ समाधान के लिए प्रस्तुत करने का उल्लेख है-“से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ।'"-भगवन् ! आप किस न्याय (दृष्टि) से ऐसा कहते हैं ?" 'उत्तराध्ययनसूत्र' में.गणधर गौतम स्वामी से केशी स्वामी द्वारा समाधानार्थ किये गये जिज्ञासापूर्ण प्रश्न भी पृच्छा-स्वाध्याय की कोटि में आते हैं। अतः शंका का समाधान पाने के लिए प्रश्न पूछना अनुचित नहीं, बशर्ते कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का ध्यान रखकर जिज्ञासा के साथ वह पृच्छा हो। भगवान महावीर से प्रतिपृच्छना से लाभ के विषय में पूछा गया तो उन्होंने कहा-“प्रतिपृच्छना से जिज्ञासु व्यक्ति सूत्र, अर्थ और तदुभय (दोनों) को विशुद्ध कर लेता है तथा कांक्षामोहनीय कर्म को : विच्छिन्न (नष्ट) कर देता है।" अर्थात् पृच्छना से वह अपनी शंकाओं को निवृत्त करके कांक्षामोहनीय कर्म का क्षय कर डालता है।२ - परिवर्तना का अर्थ है-पढ़े हुए, सुने हुए अथवा सीखे हुए या कण्ठस्थ किये • हुए ज्ञान या पाठ को बार-बार दोहराना, पुनरावर्तन करना या आवृत्ति करना। पढ़े, सुने या सीखे हुए ज्ञान या पाठ की यदि बार-बार आवृत्ति न की जाये तो धीरे-धीरे वह विस्मृत-सा हो जाता है। परिवर्तना से ज्ञान स्थिर और प्रखर हो जाता है, सीखी हुई विद्या सुदृढ़ हो जाती है। महापुरुषों का नामस्मरण, नवकार मंत्र आदि मंत्रों का जाप तथा अरिहन्तों-सिद्धों के स्तोत्र, स्तव, स्तुति पाठ, प्रार्थना, भजन आदि का बार-बार करना भी परिवर्तना स्वाध्याय के अन्तर्गत है। परिवर्तना से जीव को क्या लाभ होता है ? ऐसा पूछे जाने पर भगवान ने कहा-"परिवर्तना . १. वायणाए णं निज्जरं जणयइ। सुयस्स य अणुसज्जणाए अणासायणाए बट्टए। सुयस्स अणुसज्जणाए अणासायणाए वट्टमाणे तित्थधम्म अवलंबइ। तित्थधम्म अवलंबमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ। -उत्तराध्ययन २९/१९ २. पडिपुच्छणयाए सुत्तत्थ-तदुभयाइं विसोहेइ। कंखा-मोहणिज्जं कम्मं वोच्छिंदइ॥ -वही २९/२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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