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________________ * ३६० * कर्मविज्ञान : भाग ७ * के अनुसार 'मोक्खपूरिसत्थो' में मुख्यतया पाँच परिगणित की गई हैं(१) सेवा-शुश्रूषा-शरीर के पोषक एवं संरक्षक कार्य करना, परिचर्या में रत रहना, (२) श्रम-अपनयन-थकान दूर करने के लिए पैर आदि दबाना, (३) खेद-अपनयन-मानसिक या बौद्धिक श्रम से उत्पन्न खिन्नता निवारण करना। उसके लिए तदनुकूल वातावरण बनाना तथा तद्योग्य पदार्थों का योग करना, (४) शान्तिकारण-क्षोभ-निवारक कार्य करना, जिससे अखण्ड शान्ति बनी रहे, (५) समाधिकारण-ग्लानता, रुग्णता, अशक्ति आदि उत्पन्न न हो और उत्पन्न हुई हो तो उसका निवारण करना इत्यादि क्रियाएँ भक्तिभाव से युक्त अम्लानभाव से की जाएँ तो वैयावृत्य में परिगणित होती हैं। वैयावृत्य का व्यवहारस्वरूप : पूर्वोक्त पंचप्रक्रिया से युक्त वैयावृत्य के व्यावहारिक स्वरूप को देखने से उपर्युक्त पाँचों प्रक्रियाएँ वैयावृत्य में स्पष्टतया परिलक्षित होंगी। 'निशीथचूर्णि' में वैयावृत्य का स्वरूप बताया गया है-भोजन, वस्त्र आदि से ग्लान, वृद्ध आदि साधक की परिचर्या = सेवा द्रव्यरूप से तथा उपदेश, सप्रेरणा आदि भावरूप से जो भी अपने को तथा अन्य को उपकृत किया जाता है, वह सब वैयावृत्य है। ज्ञान-दर्शन-चारित्रतपरूप (कर्ममुक्तिरूप) मोक्ष-साधक धर्म की साधना करते एक दूसरे साथी साधकों को आत्म-विकास में, जीवन-विकास में तथा धर्म-साधना में सहयोग करना वैयावृत्य का मुख्य प्रयोजन है। इसी को धोतित करते हुए एक आचार्य ने वैयावृत्य का अर्थ किया है-“भक्त, साथी साधक या साधर्मिकों आदि द्वारा धर्म (ज्ञानादि रत्नत्रयरूप धर्म) की साधना में आहार आदि वस्तुओं द्वारा उपग्रह करना-उपकार या सहयोग करना वैयावृत्य है। 'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार-दुःख में आ पड़ने पर निरवद्य विधि से गुणी पुरुषों के दुःख दूर करना वैयावृत्य है अथवा शरीर की चेष्टा या दूसरे द्रव्य द्वारा उनकी उपासना (सेवा) करना वैयावृत्य है। 'धवला' के अनुसार-"व्यापृत अर्थात् रोगादि से व्याकुल साधक को (साता उपजाने हेतु) जो कुछ किया जाता है।” अथवा “विशेष आपदा (व्यापदा) के समय उसके निवारणार्थ जो (सहयोग) किया जाता है वह वैयावृत्यतप है।'' 'चारित्रसार' में भी कहा गया है-"शरीर की पीड़ा अथवा दुष्ट परिणामों (अध्यवसायों) को दूर करने के लिए शरीर की चेष्टा से किसी औषध आदि अन्य द्रव्य से अथवा सदुपदेश या सत्परामर्श देकर सहयोग करना अथवा कामना, इच्छा, फलाकांक्षा से व्यावृत (निवृत) होकर किसी साधक के लिए सहयोग कार्य करना वैयावृत्य है।" 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के अनुसार-"जो मुनि उपसर्ग से पीड़ित हो तथा बुढ़ापा, अशक्ति, पीड़ा, व्याधि आदि के कारण जिनकी काया क्षीण हो गई है, उन संयमी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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