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________________ * सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप 8 २८९ * संसारवृद्धि का ही कारण हुआ। उससे वह बालतपस्वी न तो कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हो पाता है, न ही उसे आत्म-दर्शन या परमात्मपद की प्राप्ति हो सकती है। कदाचित् बालतप से निदान (सांसारिक भोगाकांक्षा) द्वारा कुछ लब्धियाँ (भौतिक सिद्धियाँ) प्राप्त हो जाएँ, किन्तु प्रायः उन विविध लब्धियों के मद में उन्मत्त होकर या शाप, क्रोध, आवेश, विषयासक्ति, अहंकार आदि के चक्कर में पड़कर फिर नये अशुभ कर्मों का बन्ध कर लेता है। लब्धियों के अज्ञानपूर्वक प्रयोग से दुर्गति के द्वार पर ही वह दस्तक देता है। यही कारण है 'उत्तराध्ययनसूत्र' में सम्यक् (ज्ञान) तप और बालतप के साधक के अन्तर को स्पष्ट किया गया है-"जो तपस्वी है, शरीर से कृश है, इन्द्रियों का निग्रह करता है, शुद्ध व्रतबद्ध है तथा उग्रतप करके जिसने कषायों को उपशान्त करके आत्म-शान्ति (तपःसमाधि) प्राप्त कर ली है, उसे हम माहन (ब्राह्मण) कहते हैं।' ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने सम्भूति मुनि के भव में उत्कट तप द्वारा अनेक लब्धियाँ प्राप्त कर लीं, किन्तु चक्रवर्ती पद का निदान करके उसने सम्यक्तप को बालतप के रूप में परिणत कर डाला। चक्रवर्ती पद पाकर भी वह मोहमूढ़ होकर हिंसादि घोर पापों में रत रहा और अन्त में नरक का मेहमान बना। जिस सम्यक्तप से वह सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष प्राप्त कर सकता था, उसे बालतप में परिणत करके घोर संसारवृद्धि की। - निष्कर्ष यह है, तप यदि सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानपूर्वक विवेकयुक्त नहीं है तो वह तप अज्ञान (बाल) तप है। ‘प्रवचनसार' में कहा गया है-“अज्ञानी-साधक लाखोंकरोड़ों वर्षों तक उत्कट तप करके जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों को तीन गुप्ति (मन-वचन-काय संयम) से युक्त ज्ञानी-साधक एक क्षण (उच्छ्वासमात्र १. (क) कसेहि अप्पाणं (कसायप्पाणं) जरेहि अप्पाणं (कम्मसरीरगं)। -आचारांग, श्रु. १, अ. ४, उ. ३ (ख) इंदियाणि कसाए य गारवे य किसे कुरु। णो वयं ते पसंसामो किसं साहु-सरीरगं॥ -निशीथभाष्य ३७५८ (ग) जस्स वि अ दुप्पणिहिआ होंति कसाया तवं चरंतस्स। सो बालतवस्सी वि व गय-ण्हाण-परिस्समं कुणइ॥ -दश. नि. ३०० (घ) न हु बालतवेण मुक्खुत्ति। -आचारांग नि. २/४ (ङ) एस मग्गुत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदं सिहिं। -उत्तरा. २८/२ गा. (च) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ५३६ (छ) तवसियं किसं दंतं अवचिय मंससोणियं। सुव्वयं पत्तनिव्वाणं तं वयं बूम माहणं।। -उत्तरा. २८/२ गा. (ज) देखें-उत्तराध्ययनसूत्र का चित्तसंभूतीय नामक १३वाँ अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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