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________________ ॐ सकामनिर्जरा का एक प्रबल कारण : सम्यक्तप ॐ २६३ ॐ निर्विकारता के लिए तपश्चर्या का ताप रसायनशास्त्री स्वर्णभस्म, प्रवालभस्म, अभ्रकभस्म, लौहभस्म आदि कई प्रकार के गुणकारी, रोगनाशक भस्में बनाते हैं, यह उन वस्तुओं को तपाने और गरमाने का ही प्रतिफल है। पानी गर्म करके भाप तैयार की जाती है, उससे रेलगाड़ी का इंजन तथा कई मशीनें चलाई जाती हैं। सामान्य पानी को औषधोपयोगी बनानेडिस्टिल्ड वाटर के रूप में परिणत करने के लिए उसे भट्टी पर चढ़ाकर भाप बनाकर निकाला जाता है। दूध को गर्म करने पर घी उपलब्ध होता है। सोने को आग में तपाकर ही विविध आभूषण तैयार किये जाते हैं। अन्य धातुओं से औजार या बर्तन आदि उपकरण तभी बनते हैं, जब उन्हें अग्नि में डालकर, तपाकर कोमल बनाया जाता है। इसी प्रकार मनुष्य की जड़ता, कठोरता एवं क्रोध, मान आदि कषाय-नोकषायों की विकारता को सद्बौद्धिकता, सुकोमलता और निर्विकारता में बदलने तथा उसे अमुक साँचे में ढालने के लिए विविध तपश्चरण का ताप आवश्यक होता है। इसीलिए 'निशीथचूर्णि' में कहा गया है-“तवस्स मूल धिति।''-तप का मूल धैर्य, साहस और सहिष्णुता है।' . जीवन में तप की आवश्यकता और उपयोगिता भारतीय विद्यार्थी प्राचीनकाल में गुरुकुलों के कठोर और कष्टकारक अनुशासन में रहकर सम्यक्तप के रूप में नहीं, फिर भी तपोमय एवं काफी कष्टसाध्य जीवनयापन करता था। विद्याध्ययन करने के साथ-साथ वहाँ तन को सुदृढ़, मन को सहनशील और बुद्धि को क्षमता-परायण बनाने की साधना का प्रशिक्षण भी दिया जाता था, ताकि वह विद्यार्थी आगे चलकर अपने जीवन में स्वावलम्बी, तेजस्वी, श्रम-परायण बन सके। विद्यार्थी की तरह किसान, पहलवान, श्रमजीवी, व्यवसायी या कलाकार को भी बाल्य-चपलता से दूर रहकर अपने-अपने कर्तव्य-कर्म में सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास आदि का कष्ट सहना पड़ता था, दूसरे के अनुशासन में तपकर नियंत्रण में रहना पड़ता था, अपनी स्वच्छन्दता, विषयलोलुपता, निरंकुश मौज-शौक, उद्दण्डता और अकर्मण्यता से दूर रहकर जीवन को तपाना, घड़ना और कष्ट-सहिष्णु बनाना पड़ता था। तभी उन्हें तथा अन्य लोगों को अपने जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता और सुख-शान्ति मिलती थी। यद्यपि ये लोग तपस्वी नहीं कहलाते थे, फिर भी इन्हें अपने जीवन की सफलता के लिए आरामतलबी, शारीरिक सुख-सुविधा और मटरगश्ती, मानसिक चंचलता, नास्तिकता तथा स्वच्छन्दतापूर्ण मर्यादाहीनता में कटौती करनी पड़ती थी। परन्तु उस कष्ट-सहिष्णुता के पीछे जीवन की उज्ज्वल संभावनाएँ, १. निशीथचूर्णि ८४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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