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________________ * २५६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ बुद्ध शिष्य का उपसर्ग को समभाव से सहने का विधायक चिन्तन इसी प्रकार का एक चिन्तनोपाय जातककथा में तथागत बुद्ध के एक शिष्य का मिलता है। तथागत बुद्ध के एक शिष्य के त्रिपिटक आदि का अध्ययन पूर्ण हो जाने पर अपनी आत्मा को कष्ट-सहिष्णु बनाने तथा अनार्य जनों को बोध देकर धर्मपथ पर लाने हेतु तथागत बुद्ध से सुमेरूपरान्त देश में जाने की आज्ञा माँगी। बुद्ध ने उसकी परीक्षा करने के लिए पूछा-"तुम जहाँ जा रहे हो, वहाँ के लोग असभ्य हैं, वे तुम्हें गाली देंगे, तुम्हारी निन्दा करेंगे तो तुम वहाँ कैसे टिकोगे?" भिक्षु बोला"मैं उनकी सज्जनता की प्रशंसा करूँगा कि उन्होंने मुझे मारा-पीटा नहीं।" बुद्ध ने कहा-“यदि उन्होंने तुम्हें मारा-पीटा तो?' “मुझे उनका दयाभाव देखकर प्रसन्नता होगी कि उन्होंने मुझे जान से तो नहीं मारा।" -भिक्षु ने उत्तर दिया। बुद्ध ने कहा"अगर उन्होंने तुम्हें जान से मार डाला तो?' शिष्य-“भगवन् ! यह संसार दुःख, शोक, संतान से भरा है, यह शरीर रोग का घर है, मेरी आत्मा ने भी न मालूम कितने पाप किये होंगे। आत्मा को पूर्वकृत पापकर्मों से छुड़ाने के लिए मैं जी रहा हूँ। यदि वे मुझे जान से मारने पर उतारू हुए तो मैं उन्हें धन्यवाद दूँगा कि उन्होंने मुझे समभाव से मरणान्त कष्ट सहकर आत्मा को (कर्मनिर्जरा करने) पापों से मुक्त करने का अवसर दिया।" यह सुनकर बुद्ध ने कहा-"तुमने सच्चा अध्यात्मज्ञान पाया है। तुम जहाँ विचरण करना चाहो, विचरण करो, मेरा आशीर्वाद है।'' ___ यह है, कष्टों को समभाव से, विधायक चिन्तन के रूप में सहकर कर्मनिर्जरा करने का उपाय ! वीतराग केवली द्वारा निर्जरा का प्रस्तुत आदर्श : कैसे और क्यों ? यद्यपि केवली भगवान या अर्हन्त तीर्थंकर चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय करके वीतराग हो जाते हैं। अतः उनके पूर्वबद्ध कर्मों के फलस्वरूप वेदनीय कर्म उदय में आता है, तब किसी न किसी उदयागत परीषह या उपसर्ग के आ पड़ने पिछले पृष्ठ का शेष अक्कोसति वा अवहसति वा, णिच्छोडेति वा, णिब्भंछेति वा बंधेति वा सभंति वा छविच्छेद करेति वा, पमारं वा णेति, उद्दवेइ वा, वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंच्छणमच्छिंदति वा विच्छिंदति वा भिंदति वा अवहरति वा। (२) जक्खाइटे खलु अंय पुरिसे तेण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा तहेव जाव अवहरति वा। (३) ममं च णं तब्भववेयणिज्जे कम्मे उदिण्णे भवति ते ण मे एस पुरिसे अक्कोसति वा तहेव जाव अवहरति वा। (४) ममं च णं सम्ममसहमाणस्स अखममाणस्स अतितिक्खमाणस्स अणहियासमाणस्स किं मण्णे कज्जति? एगं तसो मे पावे कम्मे कज्जति। (५) ममं च णं सम्म सहमाणस्स जाव अहियासेमाणस्स किं मण्णे कज्जति ? एगंतसो मे णिज्जरा कज्जति। .. १. 'जातकट्ठकथा' से भाव ग्रहण -स्थानांगसूत्र, स्था. ५, उ. १, सू. ७३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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