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________________ २४६ कर्मविज्ञान : भाग ७ इन सबके अतिरिक्त संवरपूर्वक सकामनिर्जरा के और भी विभिन्न स्रोत आगमों में यत्र-तत्र मिलते हैं। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की निर्जरा के निम्नलिखित स्रोत बताये हैं " स्वाध्याय (पंच अंगों से युक्त) से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय (निर्जरा) होता है । " "काल प्रतिलेखना से भी ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय ( सकामनिर्जरा.) होता है । " आशय यह है कि आगम विहित जो प्रादोशिक या प्राभातिक स्वाध्यायकाल है अथवा शास्त्रोक्त विधि के अनुसार स्वाध्याय, ध्यान, शयन, जागरण, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण, भिक्षाचर्या या आहार आदि के लिए जो काल नियत है, उसका प्रतिलेखन करना यानी पूरा ध्यान रखना, प्रमादरहित होकर उपयोगपूर्वक समय: विभाग के अनुसार प्रत्युपेक्षणा करने से ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा होती है। इसी प्रकार "श्रुत (शास्त्र, सिद्धान्त) की आराधना भलीभाँति अध्ययन, मनन, लेखन-सम्पादन आदि) से जीव अज्ञान ( श्रुतजन्य विशिष्ट बोध के अज्ञान) का क्षय करता है, यानी तज्जन्य ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण हो जाता है। अज्ञान नष्ट होने से (राग-द्वेष-जन्य) आन्तरिक क्लेश भी शान्त हो जाता है ।" " इसी प्रकार “श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के निग्रह से उस उस इन्द्रिय के मनोज्ञ - अमनोज्ञ शब्दादि विषयों के प्रति होने वाले राग-द्वेष का निग्रह हो जाता है । फिर उस उस इन्द्रिय - निमित्तक नये कर्मों का बन्ध नहीं होता, साथ ही पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा हो जाती है । " ,२ इसी तरह क्रोध, मान, माया और लोभ के विजय से जीव क्रोधवेदनीय, मानवेदनीय, मायावेदनीय और लोभवेदनीय कर्म का बन्ध नहीं करता और तत्तत्-कषाय से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा कर देता है । ३ १. (क) सज्झाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ । (ख) कालपडिलेहणयाएणं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ । (ग) सुयस्स आऱाहणयाएणं अन्नाणं खवेइ, न य संकिलिस्सइ । - उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. १८, १५, २४ जिब्भंदि फासिंदिय निग्गण स फासेसु रागदोस-निग्गहं जणयइ । तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, - वही, अ. २९, सू. ६२-६६ लोभविजएणं (कमेण) कोहवेयणिज्जं मायावेयणिज्जं ं ं ं ं लोभवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरे । - वही, अ. २९, सू. ६७-७० २. सोइंदिय 'चक्खुंदि घाणिंदिय रू, गंधे रसु पुव्वबद्धं च निज्जरेइ | ३. कोहविजएणं माणविजएणं मायविजएणं माणवेयणिज्जं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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