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________________ * योग्य क्षेत्र में पुण्य का बीजारोपण १७३ विधि, द्रव्य, दाता और पात्र की अपेक्षा से दान के फल में विशेषता आती है। यदि चारों ही शुद्ध और उत्कृष्ट हैं तो फल भी उत्कृष्ट होगा । इनकी शुद्धता और उत्कृष्टता में जितनी कमी होगी उसके फल में भी उतनी ही कमी होती चली जायेगी । १ यद्यपि ‘स्थानांगसूत्र’ में उक्त दस प्रकार के दानों में से धर्मदान के विषय में विधि आदि का विवेक करना अनिवार्य है। अन्न, औषध, अभय और ज्ञान का श्रद्धापूर्वक विधि आदि सहित दिया गया दान भी धर्मदान के अन्तर्गत है । अनुकम्पादान में भी विधि आदि का किंचित् विवेक करना चाहिए। गीता में उक्त सात्त्विक, राजस और तामसदान का भी विचार दाता को करना आवश्यक है। वैसे तो जीवमात्र अनुकम्पापात्र है । फिर भी 'प्रथम ज्ञान, फिर दया' के सिद्धान्त अनुसार दान में विवेक होना चाहिए । 'स्थानांगसूत्र' में 90 प्रकार के दान बताये हैं - (१) अनुकम्पादान, (२) संग्रहदान, (३) भयदान, (४) कारुण्यदान, (५) लज्जादान, (६) गौरघदान, (७) अधर्मदान, (८) धर्मदान, (९) करिष्यतिदान, और (१०) कृतदान । इनमें अधर्मदान तो सर्वथा वर्ज्य है। अनुकम्पादान और धर्मदान के सिवाय शेष ७ दानों में विवेक किया जाये तो किंचित् पुण्यलाभ हो सकता है। ‘समयसार' में कहा गया है - पुण्य या पाप भावों पर निर्भर है, किसी वस्तु, व्यक्ति या निमित्त पर नहीं । ३ परन्तु भावों की शुभाशुभता के समझने में भी पूरा विवेक होना चाहिए। क्रूर, कठोर, अनुकम्पाविहीन, निर्दय - हृदय में यदि ऐसे पिछले पृष्ठ का शेष ये अन्ध-विश्वासयुक्त या परम्परागत अशुभ प्रवृत्ति अशुभ भावात्मक हैं, शुभ भावात्मक नहीं यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ २१ ॥ • अदेशकाले यद्दानं च पात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं तत् नामसंमुदाहृतम्॥२२॥ १. 'तत्त्वार्थसूत्र दिवेचन' (उपाध्याय श्री केवल मुनि जी ) से भाव ग्रहण, पृ. ३४८ २. दसविहे दाणे पण्णत्ते तं - अणुकम्पा संगहे चेव भये कालुणिएइ य । लज्जाए गारवेणं च अहम्मे पुण सत्तमे । धम्मेय अट्टमे वृत्ते, काहीइ य कयंति य । - स्थानांग, स्था. 90 Jain Education International - भगवद्गीता, अ. १७, श्लो. २०-२२ दस प्रकार के दान कहे गये हैं - ( १ ) अनुकम्पादान, (२) (४) कारुण्यदान, (५) लज्जादान, (६) गौरवदान, (७) (९) करिष्यतिदान, और (१०) कृतदान । १३. ण य वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोऽत्थि । For Personal & Private Use Only संग्रहदान, (३) भयदान, अधर्मदान, (८) धर्मदान, - समयसार २६५ www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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