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________________ * कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ॐ ८९ * नहीं थी, इसीलिए वे उपसर्गों के दौरान अथवा मृत्यु की घड़ियों के समय बिलकुल निर्भय, निर्द्वन्द्व एवं निरुद्विग्न रहे। ___ भयवेदनीय आस्रव के कारणों का उल्लेख 'राजवार्तिक' में किया गया है"स्वयं भयभीत रहना और दूसरों को भयभीत करना।" इसलिए कर्ममुक्ति के साधक को भय के जितने भी कारण हैं, उनसे तत्त्वज्ञान-सम्यग्ज्ञानपूर्वक बचना चाहिए। जुगुप्सा : अर्थ, स्वरूप एवं कारण - इसके बाद छठा नोकषाय है-जुगुप्सा। जुगुप्सा का अर्थ होता है-घृणा, नफरत या अरुचि। यह द्वेष का उपजीवी या उत्तेजक दुर्गुण है। जुगुप्सा हृदय का पागलपन है, घृणा शैतान का कार्य है। किसी के प्रति लम्बे अर्से तक गुप्त घृणा रखने से एग्जिमा, दमा, हाई ब्लड प्रेशर अथवा दृष्टिदोष आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। घृणा मनुष्य का मौलिक पाप है। ‘राजवार्तिक' में जुगुप्सा का अर्थ किया है-कुत्सा या ग्लानि। जिस (मोहकर्म) के उदय से अपने दोषों का ढाँकना और दूसरे के कुल, शील, गुण आदि में दोषों का प्रगट करना, कलंक लगाना, आक्षेप करना या भर्त्सना करना आदि हो, उसकी जुगुप्सा संज्ञा है। धर्मात्मा साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकारूप चतुर्विध धर्मप्रधान संघ, धर्मात्मा वर्ग, कुल आदि से तथा उनके आधार-विचार और धर्मक्रिया आदि से घृणा = ग्लानि करना तथा अपने माने हुए सम्प्रदाय, पंथ, जाति, कौम, प्रान्त, राष्ट्र आदि से भिन्न सम्प्रदाय आदि के प्रति घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, निन्दा, अश्रद्धा करना-कराना अथवा दूसरे की बदनामी करना आदि जुगुप्सा (नोकषाय) वेदनीय आस्रव (बन्ध) के कारण हैं। किसी व्यक्ति को बेडौल, बौना, अपंग, गंदा, पापी, फटेहाल, निर्धन, उन्मत्त, विभ्रान्त, विक्षिप्त आदि देखकर उससे घृणा करने से जुगुप्सा मोहनीय कर्म का बन्ध होता है। महात्मा गांधी जी का कहना था-स्नेह, प्रेम अथवा वात्सल्य या आत्मीयभाव के द्वारा घृणा (जुगुप्सा) पर विजय प्राप्त की जा सकती है, घृणा द्वारा नहीं। वस्तुतः पाप से घृणा करो, दुर्गुणों से नफरत करो, पापी या दुर्गुणी से नहीं। किसी से घृणा-द्वेष करने से हम उसे सुधार नहीं सकते। १. (क) देखें-आनन्द, कामदेव आदि का उपसर्गों के समय निर्भयतापूर्वक धर्म पर स्थिर रहने का वृत्तान्त उपासकदशांग में । . (ख) 'महावीर की साधना का रहस्य' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. २९१, २९५ २. स्वयं भय-परिणाम-परभयोत्पादन-निर्दयत्व-त्रासनादिभिर्भयवेदनीयस्य। _ -राजवार्तिक ६/१४/३/५२५/८ ३. (क) 'जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भा. २' में कषाय शब्द में चौथा पैरा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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