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________________ ॐ ४७८ * कर्मविज्ञान : भाग ६ * होता है, वह गर्भदर्शी और जन्म (मरण) दर्शी होता है। अर्थात् जो आत्म-द्रष्टा या ज्ञाता-द्रष्टा होता है, वह क्रोध से लेकर राग, द्वेष, मोह तक से होने वाले अनिष्टों का यथार्थ द्रष्टा होता है और इनके फलस्वरूप गर्भ में पुनः-पुनः आगमन और दुर्गतियों में जन्म-मरण को जान-देख सकता है और इस प्रकार का आत्म-द्रष्टा मेधावी दीर्घदर्शी पुरुष क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह आदि पापस्थानों से निवृत्त होकर गर्भ, जन्म-मरण एवं नरक-तिर्यञ्च आदि दुर्गतियों में होने वाले पापकर्मजनित दुःखों से बच जाता है। कलह भी दूसरों की ओर देखने से होता है कलह, झगड़ा, तू-तू मैं-मैं, युद्ध, विवाद, वाक्कलह, कटु व्यवहार, ईर्ष्या आदि भी दो में होते हैं, अकेले में नहीं होते। तात्पर्य यह है कि जब व्यक्ति अपने आप (आत्मा) को न देखकर दूसरों को देखता है और रागादिवश दूसरों के कार्यों, व्यवहारों, वचनों, मतों, मान्यताओं आदि को बर्दाश्त नहीं कर पाता है या अनेकान्त या सापेक्ष दृष्टि से समन्वय नहीं कर पाता, तभी कलह का जन्म होता है। कलह अशान्ति का मूल है। कषायों का ईंधन पड़ने से कलहाग्नि अधिकाधिक उत्तेजित-प्रज्वलित होती है, जिसके कारण वैर-विरोध, प्रतिशोध, ईर्ष्या आदि भड़क उठते हैं। कलह के विषय में 'धवला' में कहा गया है-क्रोधादि के वश तलवार, लाठी या असभ्य वचन आदि के द्वारा दूसरों के मन में सन्ताप उत्पन्न करना ही कलह है।२ कलह सभी कषायों आदि पापों का सामूहिक रूप है । एक विचारक ने कहा है-“जिस प्रकार तपी हुई रेती स्वयं को भी जलाती है और पृथ्वी को भी तपाती है, उसी प्रकार कलह अपने आप को (आत्मा को, शरीरादि को) तपाता है और दूसरों को भी तपाता (गर्म कर देता) है। इसलिए कलह स्व-पर दोनों के लिए दुःखकारक है।"३ कलह सभी कषायों और पापों का १. (क) जे कोहदंसी से माणदंसी मायादंसी लोभदंसीपेज्जदंसी दोसदंसी मोहदंसी 'गब्भदंसी जम्मदंसीमारदंसी नरयदंसी तिरियदंसी से दुक्खदंसी।। (ख) से मेहावी अभिनिवट्टिज्जा कोहं च माणं च मायं च लोभं च पेज्जं च दोसं च मोहं च गब्भं च जम्मं च मारं च नरयं च तिरियं च दुखं च। -आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ३, उ. ४ २. क्रोधादिवशादसि-दण्डासभ्यवचनादिभिः परसन्ताप-जननं कलहः। -धवला.१२/४/२८५ ३. आत्मानं तापयेन्नित्यं, तापयेच्च परानपि। उभयोर्दुःखकृत् क्लेशो, यथोष्णरेणुका क्षिती॥
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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