SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ २८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * पहले ही वह प्रतिदिन कुछ न कुछ त्याग, तप, जप, धर्माचरण कष्ट-सहन या तितिक्षाभाव स्वेच्छा से बिना किसी भय, स्वार्थ या प्रलोभन के अपनाता जाए तो आने वाले कर्मों का निरोधरूप संवर हो सकता है। वस्तुतः धर्म संवर और निर्जरा की कला सिखाता है। धर्म अगर प्रबल हो और श्रद्धा-भक्ति एवं आत्म-विश्वास के साथ उसका प्रयोग संवर या निर्जरा के रूप में किया जाए तो सम्यग्दृष्टि, अणुव्रती या महाव्रती धर्मनिष्ठ व्यक्ति मोहनीय कर्म जैसे प्रबल कर्म को भी परास्त, क्षीण या आंशिक रूप से नष्ट कर सकता है। मोहकर्म के विरोध में धर्म क्या कर सकता है ? ___ मोह के उपशान्त या कुछ अंशों में क्षीण होने पर संवर-निर्जरारूप धर्म होता है। परन्तु मोहकर्म विभिन्न रूपों में मनुष्य के जीवन को प्रभावित करता है। आज के अधिकांश व्यक्ति इसी मोहकर्म के कारण धर्म को इस रूप में स्वीकार नहीं करते कि धर्म से हमारी वैयक्तिक, सामाजिक, पारिवारिक या सामूहिक समस्याओं का हल हो सकता है। धर्म को जीवन में रमाने-अपनाने से हमारी क्रोध, लोभ, मोह, मद, अहंकार, दीनता-हीनता, क्रूरता तथा दूसरों को नीचा और खुद को ऊँचा मानने की एवं लड़ाई-झगड़े की मनोवृत्ति मिट सकती है, धर्म से हमारे जीवन में सन्तोष, अहिंसा, क्षमा, सादगी, मानवता, सेवा आदि सद्गुण आ सकते हैं। धर्म का केवल उपासनात्मक रूप अपनाने से हानि हम देखते हैं. भारत के अधिकांश व्यक्ति धर्म को केवल उपासनात्मक रूप में स्वीकार करते हैं। सुबह उठकर माला फिराओ, उपाश्रय, मन्दिर या धर्मस्थान में जाओ, साधु-साध्वी हों तो उनके दर्शन कर लो, उनसे मंगल पाठ श्रवण कर लो, समय आया, प्रार्थना कर लो, सामायिक कर लो, बस, इतने में ही धर्म की इति समाप्ति। किसी प्रतिष्ठित साधु ने प्रेरणा दी तो उनका प्रवचन सुन लिया, बाह्य तप . कर लिया, किसी शास्त्र का मूल पाठ पढ़ लिया। परन्तु उसके बाद घर, दुकान, संस्था, व्यापारिक संस्थान में वह धर्म, वह समताभाव, वह शान्ति, सन्तोष, अध्यात्म ज्ञान उनके जीवन में नहीं उतरता। इसीलिए आज के युवक प्रायः धर्म का नाम सुनते ही भड़कते हैं, जब उनसे धर्माचरण के लिए कुछ कहा जाता है तो वे तपाक से कह बैठते हैं-जब हम बहुत धर्म करने वाले बड़े-बूढ़ों का आचरण और व्यवहार देखते हैं, तब यह नहीं प्रतीत होता कि धर्माचरण करने से हमारे जीवन में इससे आगे और कुछ लाभ होगा? धर्म हमारे अन्तर में और क्या तबदीली ला सकेगा? इनके व्यवहार में उदारता, समता, मधुरता, वत्सलता और परमार्थभावना नहीं दिखाई देती तो हमारे जीवन में धर्म व्यवहार में उदारता आदि गुण कैसे ला देगा? आज बहुत-से स्थूलदृष्टि लोग अपने इहलौकिक और पारलौकिक
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy