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________________ ४३८ कर्मविज्ञान : भाग ६ है, ऐसे अविरत, अप्रत्याख्यानी, असंयत, अव्रती जीव के परिणाम सदा सतृष्ण और मलिन रहते हैं। जीव को उन-उन पापकर्मों को पुनः पुनः करने की पिपासा, तृष्णा, लालसा, वांछा, आशा, कामना और वासना लगी ही रहती है, भले ही उस पाप को उसने कार्यरूप में परिणत न किया हो । पापों के वासनामय दुष्परिणामों के कारण अविरत जीवों के निरन्तर पापकर्म का बन्ध होता रहता है। एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यंच पंचेन्द्रिय तक के जीव जो बाहर से तो हिंसादि करते, भोगोपभोग सेवन करते दिखाई नहीं देते, किन्तु उन उन से संकल्पपूर्वक विरत न होने से, यानी व्रतबद्ध नियमबद्ध न होने से अविरत ही हैं। विरत नहीं कहलाते । भगवान महावीर ने इस एकान्त अविरति के स्थान को अनार्य, केवलज्ञानरहित, अप्रतिपूर्ण, अन्याययुक्त, अशुद्ध, शल्य काटने के लिए अयोग्य कहा है। अविरति मोक्ष (कर्ममुक्ति) का मार्ग नहीं है, निर्वाण (परम शान्ति ) का मार्ग नहीं है, यह सर्वदुःखों को प्रहीण (क्षय) करने का मार्ग भी नहीं है । अविरति का यह स्थान एकान्त मिथ्या है, अप्रशस्त है, असाधु और अनार्य है। अविरत जीव का अन्धकारमय भविष्य भगवान महावीर ने अविरत जीव के भविष्य के विषय में कहा - "जिस प्रकार कोई वृक्ष पर्वत के अग्र भाग में उत्पन्न हुआ हो, उसकी जड़ काट दी जाय तथा वह आगे से भारी हो तो वह जिधर नीचा, विषम या दुर्गम स्थान होता है, उधर ही गिरता है; उसी प्रकार अप्रतिविरत (पापों से अविरत ) और क्रूरकर्मा मानव एक गर्भ से दूसरे गर्भ को, एक जन्म से दूसरे जन्म को, एक मरण से दूसरे मरण को, एक नरक से दूसरे नरक को एवं एक दुःख से दूसरे दुःख को प्राप्त होता है। ऐसा मनुष्य कृष्णपक्षी और भविष्य में दुर्लभबोधि होता है। ''१ विरत जीव का लक्षण और फल - प्राप्ति इसके विपरीत जो जीव प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थानों से विरत, संवृत, निवृत्त या रहित होता है, वह (पापकर्मों के बोझ से ) शीघ्र ही हल्का होता है, उसका संसार (परिभ्रमण ) घटता है, संक्षिप्त (short) होता. है और वह संसार (सागर) को शीघ्र ही पार कर जाता है। वह आर्य है, विरतिसंवर अर्जित कर लेता है | २ १. (क) सूत्रकृतागंसूत्र, श्रु. १, अ. २, उ. २, सू. ६२ (ख) वही, श्रु. १, अ. २, उ. २, सू. ६१ २. पाणाइवाइय-वेरमणेणं जाव मिच्छादंसण-विरमणेणं हव्वमागच्छंति, एवं संसारं परित्तीकरेंति वीतिवयंति । पसत्था चत्तारि । एवं खलु गोयमा ! जीवा लहुयत्तं एवं हस्सी करेंति, एवं - भगवतीसूत्र १/९/३८५, ३८७, ३८९, ३९१
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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