SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ ३७२ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ * इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है-“कोई साधक भाव-पूजादि शुभानुष्ठान के कारण यद्यपि अनन्त संसार की स्थिति का छेद कर देता है, परन्तु कोई भी अचरमशरीरी उसी भव में समस्त कर्मक्षय नहीं कर पाता, तथापि भवान्तर में देवेन्द्रादि पदों को प्राप्त करता है। वह पंचमहाविदेहों में जाकर समवसरण में तीर्थंकर भगवान के साक्षात् दर्शन भी कर लेता है। तदनन्तर विशेष रूप से दृढ़धर्मा होकर चतुर्थ गुणस्थान के योग्य आत्म-भावना को न छोड़ता हुआ देवलोक में कालयापन करता है। जीवन के अन्त में वहाँ से च्यवकर वह मनुष्य-भव में चक्रवर्ती आदि की विभूति को प्राप्त करके भी पूर्व-भव में भावित शुद्धात्म-भावना के बल से उसमें मोह नहीं करता और विषय-सुखों का त्याग करके जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण कर निर्विकल्प समाधि की विधि से विशुद्ध दर्शन-ज्ञान-स्वभावी निज शुद्धात्मा में स्थित होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। उत्तराध्ययनसूत्र, भगवतीसूत्र आदि आगमों. में जितने भी साधकों के वर्णन आते हैं, उन्होंने पहले निज शुद्धात्मा को उपादेय मानकर वैसी दृढ़ श्रद्धा से युक्त होकर व्यवहारचारित्र का आश्रय लिया है, उसके साधकरूप से तदनुकूल विशेष परिज्ञान के लिए तदनुकूल अंगशास्त्रादि का अध्ययन भी करता है तथा तदनुकूल तपश्चरण भी करता है, इस प्रकार वह (व्यवहारचारित्रानुसार) भेदरत्नत्रय की साधना करता हुआ परम्परा से (अभेदरत्नत्रयरूप आत्मभावनिष्ठ होकर) मोक्ष प्राप्त कर लेता है। . सरागचारित्र और वीतरागचारित्र दोनों में साध्य-साधनभाव 'नयचक्र वृत्ति' में दोनों प्रकार के चारित्रों का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध बताते हुए कहा गया है-सराग अंवस्था में जिस चारित्र का भेदोपचाररूप से आचरण किया जाता है, उसी का वीतराग अवस्था में अभेद व अनुपचाररूप से करना होता है। तात्पर्य यह है कि “सराग और वीतरागचारित्र में इतना ही अन्तर है कि सरागचारित्र में बाह्य क्रियाओं का विकल्प रहता है, जबकि वीतरागचारित्र में उनका विकल्प नहीं रहता। सरागचारित्र में वृत्ति बाह्य त्याग के प्रति जाती है और वीतरागचारित्र में अन्तरंग की ओर।"२ मोक्षमार्ग में दोनों में साध्यसाधकभाव बताने के लिए ‘पंचास्तिकाय ता. वृ.' में कहा है-"व्यवहारचारित्र बहिरंग साधकरूप से वीतरागचारित्रभावना से उत्पन्न परमामृततृप्तिरूप निश्चयसुख का वीज है और वह निश्चयसुख भी अक्षय, अनन्त सुख का बीज है। इस प्रकार १. देखें-पंचास्तिकाय ता. वृ. १७0/२४३/१५ में परम्परा से व्यवहारचारित्र को मोक्ष का कारण कहने का तात्पर्य २. जं विय सरागचरणे भेदुवयारेण भिण्ण चारित्तं। तं चेव वीयराये विपरीयं होइ नायव्वं। -नयचक्र व. २०४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy