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________________ • ® कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ * २०७ ॐ हम आत्मा की ही शरण ग्रहण कर रहे हैं, दूसरे की नहीं इस प्रकार ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप अपनी आत्मा ही शरण है, अर्हत् या अरिहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म; ये चारों आत्मा से भिन्न नहीं हैं। अतः अपने इस भ्रम को दिल-दिमाग से निकाल देना चाहिए कि हम किसी दूसरे की शरण ग्रहण कर रहे हैं। हम अपनी ही शरण में, अर्थात् अपने ही स्व-गुण, स्व-भाव, स्व-अस्तित्व और स्व-रूप की शरण में जा रहे हैं। ज्ञान, दर्शन, आनन्द (अव्याबाध आत्मिक सुख) और शक्ति (आत्मबल-वीर्य) इन चारों आत्मा के निजी गुणों की शरण ही आत्म-शरण है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र (वीतरागता) रूप धर्ममय ही अर्हत् हैं, इन तीनों की त्रिपुटी रूप ही सिद्ध हैं। इनकी साधना करने वाला आत्मस्वरूप-रमणकर्ता साधु है और ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तपरूप साधन पूर्वोक्त अनन्त-चतुष्टय की प्राप्ति के लिए साधन = आचरणरूप धर्म है, जो आत्मशुद्धिसाधक संवर-निर्जरा का कारण है। यही तथ्य ‘बृहद्रव्यसंग्रह' में व्यक्त किया गया है कि निश्चय रत्नत्रय से परिणत जो शुद्ध आत्म-द्रव्य (अर्हत्, सिद्ध-साधु की शुद्ध आत्मा) और उसके बहिरंग सहकारी कारणभूत पंच परमेष्ठियों की आराधना, ये दोनों ही शरण हैं। इनसे भिन्न देव आदि तथा मणि, मंत्र, तंत्र, औषध आदि सचेतन, अचेतन तथा चेतन-अचेतन मिश्रित कोई भी पदार्थ मरणादि (जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, आतंक आदि) के समय शरणभूत नहीं होते। सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार“भलीभाँति आचरित धर्म विपदाओं के समुद्र में तरने का उपाय होता है, संसाररूपी संकट में धर्म ही शरण है, मित्र है, धन है, अविनाशी है। अन्य कुछ भी शरण नहीं है। इस प्रकार बार-बार चिन्तन करना अशरणानुप्रेक्षा है। पिछले पृष्ठ का शेष (घ) 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. २८ (ङ) संसारेऽस्मिन् जनि-मृति-जरा-तापतप्ता मनुष्याः। ... ' सम्प्रेक्षन्ते शरणमनघं दुःखतो रक्षणार्थम्।। नो तद्रव्यं न च नरपति पिचक्री सुरेन्द्रो। किन्त्वेकोऽयं सकलसुखदो धर्म एवास्मि नान्यः।। -भावनाशतक (शतावधानी पं. मुनि श्री रत्लचन्द्र जी म.) १. (क) 'अमूर्त चिन्तन' से भाषांश ग्रहण, पृ. २८ (ख) निश्चय-रत्नत्रय-परिणतं स्व-शुद्धात्म-द्रव्यं तद् बहिरंग-सहकारि-कारणभूतं पंच-परमेष्ठ्याराधनं च शरणम्। तद् बहिरंगभूता ये देवेन्द्र-चक्रवर्ति-सुभट-कोटिभटपुत्रादिचेतनाः, गिरि-दुर्ग-भूविवर-मणि-मंत्राज्ञा-प्रासादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरणकालादौ शरणं न भवतीति विज्ञेयम्। तद् विज्ञाय भोगाकांक्षारूपनिदान-बन्धादि-निरालम्बने, स्व-संवित्ति-समुत्पन्न-सुखामृतस्यालम्बने स्वशुद्धात्मन्येवाव
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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