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________________ * संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म ® १३७ ॐ 'भावपाहुड' में कहा है-रागादि समस्त दोषों से रहित होकर आत्मा का आत्मा में रत होना धर्म हैं। इसी ग्रन्थ में आगे कहा गया है-“मोह और क्षोभ (राग-द्वेष एवं अशुभ योगों) से रहित आत्मा के परिणाम ही धर्म हैं।" 'प्रवचनसार' के अनुसार-चारित्र ही (आत्म) धर्म है। वह धर्म समता (साम्य) रूप में निर्दिष्ट है। वही आत्मा को मोह-क्षोभ से दूर रख सकती है। दस ही उत्तम धर्म कर्मों के नाशक (संवर-निर्जरारूप) हैं। इसलिए आगे कहे जाने वाले दसों ही धर्म चारित्र के अन्तर्गत आ जाते हैं तथा संवर-निर्जरारूप हैं। वस्तुतः चारित्र ही साक्षाद्धर्म है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान चारित्रगुण की निर्मल पर्याय हैं। चारित्ररूप वृक्ष की जड़ें हैं। जड़ के बिना वृक्ष पनप ही नहीं सकता, वृक्ष का अस्तित्व भी संभव नहीं। वैसे ही सम्यग्दर्शन-ज्ञानरूपी जड़ के बिना सम्यक्चारित्ररूपी वृक्ष खड़ा ही नहीं रह सकता, पनप नहीं रकता। अतः चारित्रगुण की ये दस निर्मल दशाएँ सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी आत्मा को ही प्रगट होती हैं। मिथ्यादृष्टि अज्ञानी को नहीं।२ । धर्म क्या है, क्या नहीं ? धर्म की परिभाषा करने में हमारे सामने अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं। इस उत्तम धर्म३ की उपेक्षा करके तप करने वाले, शास्त्र-पाठक, बाह्य त्याग-प्रत्याख्यान करने वाले, व्रत-पालक, भले ही आत्म-संतोष मान लें, परन्तु वे आन्तरिक शान्ति और समता का सुख नहीं प्राप्त कर सकते, जो उत्तम धर्म के पालन से ही मिल सकता है। मगर इस नास्तिकता के युग में बहुत-से लोग धर्म को बेकार की वस्तु समझते हैं, परन्तु जो लोग धर्म को अफीम की गोली कहते हैं, वे लोग भी परिवार, समाज और राष्ट्र में धर्म को नैतिकता, कर्तव्य-पालन, दायित्व-निर्वाह तथा मर्यादा-पालन के रूप में एक या दूसरे प्रकार से मानते हैं। उन्हीं के समर्थन में 'सत्येश्वरगीता' में धर्म की परिभाषा दी गई है-“जो धारण-पोषण करे, सुखमय करे समाज।” व्यावहारिक दृष्टि से धर्म का सरल लक्षण किया गया-'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।'-जो अपने (आत्मा के) प्रतिकूल बातें हों, उन्हें दूसरों के लिए न करे, यही धर्म है। हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, संग्रहखोरी, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, क्रोध, निन्दा आदि बातें कोई अपने प्रति करता है तो हमें अच्छी नहीं लगतीं, प्रतिकूल लगती हैं, तो दूसरों को भी प्रतिकूल लगेंगी, अतः उनका आचरण नहीं करना धर्म है। इस दृष्टि से धर्म जगत् में १. चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो सो समोत्ति णिहिट्ठो। -प्रवचनसार मू. ७ २. 'धर्म के दस लक्षण' (डॉ. हुकमचंद भारिल्ल) से भाव ग्रहण, पृ. १४-१५ ३. 'संयम कब ही मिले?" से भाव ग्रहण, पृ. ३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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