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________________ * संवर और निर्जरा का प्रथम साधन : गुप्तित्रय 8 ९३ 8 संवर के पूर्वोक्त सत्तावन भेदों से संवर के साथ निर्जरा भी होती है संवर के पूर्वोक्त सत्तावन भेदों से संवर तो होता ही है, साथ ही निर्जरा भी हो जाती है, प्रायः निर्जरा का कारण भाव-संवर बनता है। पंचास्तिकाय' में कहा गया है-जो आत्मार्थ-प्रसाधक जीव संवर से युक्त होकर आत्मा का अनुभव करके ज्ञान को नियत रूप से ध्याता है, वह कर्मरज झाड़ देता है (निर्जरा कर लेता है)। 'भगवती आराधना' में भी कहा है-जो साधक संवररहित है, उसके केवल तपश्चरण से जिन प्रवचन में कर्ममुक्ति नहीं हो सकती। ‘बारस अणुवेक्खा' में स्पष्ट कहा है जिस परिणाम से संवर होता है, उसी परिणाम से निर्जरा भी होती है। तप का दशविध उत्तम धर्म में अन्तर्भाव हो जाता है फिर भी वह संवर और निर्जरा दोनों का, खासकर संवर का कारण है। यह बताने के लिए 'तत्त्वार्थसूत्र' में पृथक् सूत्र द्वारा प्रतिपादित किया है। ‘परमात्म-प्रकाश' में कहा गया है कि (निश्चयदृष्टि से) “जब तक समस्त विकल्पों से रहित मुनिवर आत्म-स्वरूप में विलीन रहता है, तब तक त उसके संवर और निर्जरा जान।” तात्पर्य यह है कि बारहवें गुणस्थान से नीचे की भूमिका वाले साधक जो विकल्प स्थिति में हैं, उनकी निर्विकल्पता जितने अंशों में रहती है, वह सकल विकल्परहित ही होती है और उसी से संवर और निर्जरा होती है। इस भूमिका वाले के साथ जो विकल्प रहते हैं, उनसे संवर-निर्जरा नहीं होती। . . संवर-निर्जरा-सेनानी कैसे कर्मशत्रुओं को प्रवेश से रोकते हैं ? अब हमें समझना है कि नये आते हुए कर्मशत्रुओं (कर्मानवों) को संवर के पूर्वोक्त आध्यात्मिक शस्त्रसज्जित सैनिक आत्म-दुर्ग में प्रवेश करने से कैसे रोकते हैं और किस प्रकार पूर्वप्रविष्ट और आत्मा को विकृत करने वाले कर्मशत्रुओं को आत्म-दुर्ग से बाहर खदेड़ देते हैं, यानी आत्मा से उन कर्मों को पृथक् कर देते हैं। .__ .. _ १. (क) जो संवरेण जुत्तो अप्पट्ठ-पसाधगो हि अप्पाणं । ____मुणिऊण झादि णियदं णाणं. सो संधुणोदि कम्मइयं॥ -पंचास्तिकाय, गा. १४५ (ख) तवसा चेव ण मोक्खो, संवरहीणम्स होइ जिणवयणे। ___णहि सोत्ते पविसंति किसिणं परिसुम्सादि तलायं॥ -भगवती आराधना १८५४ (ग) जेण हवे संवरणं. तेण दु णिज्जरणमिदि जाणे। -वारस अणुवेस्खा, गा. ६६ (घ) तपसा निर्जग च। -तत्त्वार्थसूत्र ९/३ (ङ) अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प सरूधि णिलीण। संवर-णिज्जरजाणि तुहुँ सयल-वियप्प-विहीणु ।। -परमात्म-प्रकाश २/३८
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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