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________________ विपाक पर आधारित चार कर्मप्रकृतियाँ ७१ एक व्यक्ति ने दही खूब डट कर खा लिया, फिर बैठा ध्यान-साधना में। क्या उसका ध्यान जमेगा ? उसे बार-बार नींद सताएगी। यह दर्शनावरणीय कर्म का उद्गल-परिणाम-निमित्तक विपाक हुआ। इसमें दर्शनावरणीय कर्म के विपाक का कारण बना दधि-भोजन। एक व्यक्ति ने बहुत तेज मिर्च मसाले वाला लहसुन युक्त तामसिक भोजन किया और फिर बैठ गया साधना में। क्या ऐसे व्यक्ति के मन में काम-वासनाओं का भूचाल नहीं आएगा ? अवश्य आएगा। ध्यान-साधना के दौरान उसके मन-मस्तिष्क में विकृतियाँ पैदा होने लगीं, उत्तेजनाएँ अंगड़ाइयाँ लेने लगीं। यों 'वेद-मोहनीय' या कषायमोहनीय कर्म के विपाक का कारण बना तामसिक भोजन। उपादान के साथ निमित्त का भी विपाक में महत्वपूर्ण स्थान कई बार व्यक्ति भोज्य पुद्गलों की परिणति के कारण विपाक को आमंत्रित कर लेता है। इसलिए विपाक के पूर्वोक्त विविध निमित्तों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। कई लोग कहते हैं कि उपादान पर ध्यान दो, निमित्तों पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं, किन्तु यह कथन एकांगी है। अन्त:करण के निर्बल साधक को जरा-सा निमित्त भी पतन की खाई में डाल सकता है। मोहनीय कर्म के विपाक में जरा-सा निमित्त ही दुर्बल साधक के लिए काफी होता है। स्थूलभद्रजी के गुरुभाई की रूपकोशा का रूप देखते ही कामोत्तेजना उदित हो गई थी। चित्तमुनि के साथी संभूतिमुनि को चक्रवर्ती की रानी के कोमल केशों का स्पर्श ही मोहनीय कर्म के विपाक में निमित्त बन गया था, और उसने निदान कर लिया था। शुद्ध ब्रह्मचर्यसाधना के लिए नौ बाड़ उन-उन कामोत्तेजना के निमित्तों से बचने के लिए ही तो हैं। अतएव उपादान का जैसे महत्त्व है, वैसे ही निमित्त का भी अपने स्थान पर काफ़ी महत्त्व है। .. विपाक में त्रिविध निमित्त : स्वतः परतः और उभयतः - पहले विपाक के लिए पांच प्रकार के निमित्त बताए थे, उनमें कुछ बातें तो व्यक्ति के वश की (स्वतः उदीर्ण) होती हैं, और कुछ बातें व्यक्ति के नियंत्रण से बाह्य (परतः उदीर्ण) होती हैं। कुछ बातें स्व और पर दोनों के निमित्त से होती हैं। जैसे-एक व्यक्ति ने ट्रंस-ठूस कर भोजन किया, अवांछनीय, गरिष्ठ या तामसिक भोजन किया और नींद ने आ घेरा। यह व्यक्ति की अपनी भूल या प्रमाद का कारण १. (क) चेतना का ऊर्ध्वारोहण से भावांशग्रहण, पृ. २०२ (ख) प्रज्ञापना, पद २३, पाँचवाँ अनुभावद्वार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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