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________________ ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय-सत्ता-सम्बद्धा प्रकृतियाँ ४९ आता, वह वहाँ से सीधा मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। अतः उक्त प्रकृतियों का सादि उदय नहीं होता। इसलिए शेष दो भंग भी घटित नहीं होते। ध्रुवोदया छब्बीस प्रकृतियों में आदि के दो भंग होते हैं लेकिन मिथ्यात्व में अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त, ये तीन भंग होते हैं। अनादि-अनन्त भंग अभव्य जीवों की अपेक्षा से, अनादि-सान्त भंग अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीवों की अपेक्षा से घटित होता है। अभव्य जीवों की अपेक्षा से अनादि-अनन्त भंग इसलिए घटित होता है कि उनके मिथ्यात्व के उदय का अभाव न तो कभी हुआ है, न कभी होता है, और न ही कभी होगा। भव्य-जीवों की अपेक्षा अनादि-सान्त भंग इसलिए घटित होता है कि पहले पहल सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाने पर उसके अनादिकालीन मिथ्यात्व का अभाव (विच्छेद) हो जाता है। उन भव्य जीवों की अपेक्षा भी चौथा सादि-सान्त भंग इसलिए माना जाता है कि जो सम्यक्त्व के छूट जाने के पश्चात् पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त करके भी पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त कर उसका अभाव कर देता है। इस प्रकार ध्रुवोदया मिथ्यात्व प्रकृति में तीन भंग घटित होते हैं। अतः अध्रुवोदयी तथा अध्रुवबन्धिनी नामक दो प्रकृतियों में केवल सादि-सान्त भंग ही घटित होता है। क्योंकि उनका बन्ध और उदय अध्रुव है। कभी होता है, कभी नहीं भी होता है। इस प्रकार बन्ध और उदय प्रकृतियों में भंगों का रहस्य समझ लेना चाहिए। ध्रुवोदयी प्रकृतियाँ : स्वरूप और प्रकार ज्ञानावरणीय आदि ८ कर्मों की उदययोग्य प्रकृतियाँ सामान्यरूप से १२२ हैं। उनमें से केवल २७ प्रकृतियाँ ध्रुवोदयी हैं। ध्रुवोदयी सत्ताइस प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-निर्माण, अस्थिर, स्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, पंचविध ज्ञानावरण, पंचविध अन्तराय, चतुर्विध दर्शनावरण, और मिथयात्वमोहनीय, ये ध्रुवोदयी २७ प्रकृतियाँ बताई गई हैं। ... इन्हें ध्रुवोदयी कहने का कारण यह है कि अपने-अपने उदय-विच्छेद-कालपर्यन्त इनका उदय बना रहता है। आठ कर्मों के अनुसार इनका वर्गीकरण इस प्रकार है- (१) ज्ञानावरणीय की पांच-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय, केवलज्ञानावरण। (२) दर्शनावरणीय की चार-चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल दर्शनावरण। । १. (क) पढमविआ धुव-उदइसु धुव-बंधिसु तइअ-वज भंगतिंग। मिच्छमि तिन्नि भंगा, दुहा वि अधुवा तुरिअ भंगा।-पंचम कर्मग्रन्थ गा. ५ (ख) पंचम क्रर्मग्रन्थ, विवेचन गा.५ (मरुधरकेसरीजी), पृ. ३१ से ३६ तक (ग) पंचम कर्मग्रन्थ गा.५ विवेचन, (पं. कैलाशचन्द्रजी), पृ. ११ से १५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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