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________________ ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय - सत्ता-सम्बद्धा प्रकृतियाँ ४७ चारों भंगों का विशेष स्पष्टीकरण उक्त चारों भंगों का विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है पहला अनादि-अनन्त भंग अभव्य जीवों की अपेक्षा से होता है, क्योंकि अभव्य जीवों के ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का बन्ध अनादि - अनन्त होता है, जबकि दूसरा अनादिद- सान्त भंग भव्य जीवों की अपेक्षा से घटित होता है। कारण यह है कि पांच ज्ञानावरण, पांच अन्तराय और चार दर्शनावरण, इन चौदह प्रकृतियों के बन्ध की अनादि-सन्तान जब दसवें गुणस्थान में विच्छिन्न हो जाती है, तब अनादि- सान्त भंग हो जाता है। तथा ग्यारहवें गुणस्थान ( उपशान्तमोह) में उक्त १४ प्रकृतियों का बंधन करके मरण हो जाने अथवा ग्यारहवें (उपशान्तमोह) गुणस्थान से च्युत होकर जब पुनः उक्त चौदह प्रकृतियों का बन्ध करता है और पुनः दसवें गुणस्थान में उनका बन्ध-विच्छेद करता है, तब सादि - सान्त नामक चतुर्थ भंग घटित होता है। संज्वलन-कषाय के बन्ध का निरोध जब कोई जीव नौवें गुणस्थान में करता है, तब अनादि-‍ द- सान्त भंग घटित होता है । और वही जीव जब नौवें गुणस्थान से च्युत होकर पुनः संज्वलन कषाय का भोग करता है तथा पुनः नौवें गुणस्थान को प्राप्त करने पर उसका निरोध करता है, तब सादि - सान्त चौथा भंग होता है । निद्रा, प्रचला, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण, भय और जुगुप्सा, ये १३ प्रकृतियाँ आठवें गुणस्थान में विच्छिन्न हो जाती हैं, तब उनका अनादि - सान्त भंग होता है। और आठवें गुणस्थान से पतन होने के बाद जब उनका बन्ध होता है, तो वह सादि बन्ध है तथा पुनः आठवें गुणस्थान में पहुँचने पर जब उनका बन्ध-विच्छेद हो जाता है तो वह बन्ध सान्त कहलाता है । इस प्रकार उनमें सादि - सान्त नामक चौथा भंग घटित होता है। प्रत्याख्यानावरण-कषाय-चतुष्क का बन्ध पांचवें गुणस्थान तक अनादि है; किन्तु छठे गुणस्थान में उसका अभाव हो जाने से सान्त होता है। अत: यह अनादिसान्त भंग हुआ। छठे गुणस्थान से गिरने पर जब पुनः बन्ध होने लगता है और छठे गुणस्थान के प्राप्त करने पर उसका अभाव हो जाता है, तब चौथा सादि - सान्त भंग घटित होता है। अप्रत्याख्यानावरणकषाय- चतुष्क का बन्ध चौथे गुणस्थान तक अनादि है, लेकिन पांचवें गुणस्थान में उसका अन्त हो जाता है। अतः दूसरा अनादिसान्त भंग बनता है तथा पाँचवें गुणस्थान से गिरने पर पुनः बन्ध और जब पांचवें • गुणस्थान के प्राप्त होने पर अबन्ध करने लगता है, तब सादि - सान्त नामक चौथा भंग होता है। मिथ्यात्व, स्त्यानर्द्धि - त्रिक एवं अनन्तानुबन्धी- - कषाय- चतुष्क का अनादिबन्धक मिध्यादृष्टि जब सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर उसका बन्ध नहीं करता है, तब For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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