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________________ ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय-सत्ता-सम्बद्धा प्रकृतियाँ ४५ अभव्य के मिथ्यात्व का उदय अनादि-अनन्त है। उसमें न तो कभी मिथ्यात्व का अन्त आता है, न अन्त आएगा और न ही उसकी आदि का अता-पता है। दसरा-अनादि-सान्त भंग अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीव की अपेक्षा घटित होता है। क्योंकि पहले पहल सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर उसके मिथ्यात्व के उदय का अन्त आ जाता है। लेकिन सम्यक्त्व के छूट जाने एवं पुनः मिथ्यात्व का उदय होने पर तथा उसके पश्चात् पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होने के कारण मिथ्यात्व के उदय का अन्त हो जाता है। यों सम्यक्त्व के छूटने के बाद पुनः मिथ्यात्व का उदय होना सादि है और पुनः सम्यक्त्व की प्राप्ति होने से पूर्वोक्त मिथ्यात्व का उदय-विच्छेद होना सान्त है। ऐसी स्थिति में चतुर्थ भंग सादि-सान्त मिथ्यात्व में घटित होता है। ___ किन्तु ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में तीसरे भंग (सादि-अनन्त) को छोड़कर शेष तीनों भंग (अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त) होते हैं। ये तीनों भंग इन प्रकृतियों में इस प्रकार घटित होते हैं-अभव्य जीवों के ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का बन्ध अनादि का है और उस बन्ध के प्रवाह का अन्त कदापि नहीं होता, अर्थात्-वह कदापि अबन्धक नहीं होता है। इस दृष्टि से पहला अनादि-अनन्त भंग घटित होता है। यद्यपि भव्य के भी ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों का बन्ध अनादि का है, परन्तु गुणस्थान क्रमारोहण के साथ-साथ प्रकृतियों का विच्छेद होता जाता है। इस कारण दूसरा अनादि-सान्त भंग भव्यों में घटित होता है। उसी गुणस्थान में आगे के गुणस्थान से आरोहण करते समय अबन्धक होकर अवरोहण करते समय पुनः बन्धक हो जाने से सादि-बन्ध और कालान्तर में पुनः गुणस्थान क्रमारोहण के साथ अबन्धक होगा, इसी कारण उसमें चौथा सादि-सान्त भंग घटित होता है। . . - अधुवबन्धिनी और अध्रुवोदयी प्रकृतियों में चौथा सादि-सान्त भंग घटित होता है, क्योंकि उसका बन्ध और उदय अध्रुव है। कभी होता है, कभी नहीं होता है। अध्रुवता के कारण ही उसके बन्ध और उदय की आदि भी है और अन्त भी। - गोम्मटसार में सादि, अनादि, ध्रुव-अध्रुव बन्ध का निरूपण गोम्मटसार कर्मकाण्ड में प्रकृतिबन्ध का निरूपण करते हुए बन्ध के चार प्रकार बताए हैं-"सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव।" .. ___ "जिस कर्म के बन्ध का अभाव होकर पुनः वही कर्म बंधे, उसे सादिबन्ध कहते हैं। जिस गुणस्थान तक जिस कर्म का बन्ध होता है, उस गुणस्थान से आगे के १. पढमविया धुव-उदइसु, धुव-बंधिसु तइअ-वज्ज-भंगतिगं। मिच्छंमि तिन्नि भंगा, दुहावि अधुवा तुरिअ भंगा॥५॥ -कर्मग्रन्थ भा. ५, विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ. २३, २४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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