SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 610
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ५९० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ प्रशस्तराग मन्दबुद्धि श्रद्धालुओं के लिए कैसे प्रादुर्भूत हो? अधिकांश व्यक्ति इतने पढ़े-लिखे, विचारक, परीक्षाप्रधान अथवा तार्किक नहीं होते, वे श्रद्धा के बल पर जीते हैं। उनके द्वारा प्रशस्तराग यत्किंचित् रूप से जीवन में अपनाने हेतु 'भगवती आराधना' में जिनशासन प्रेमियों के लिए चार प्रकार के अनुराग बताए हैं-भावानुराग, प्रेमानुराग, मज्जानुराग और धर्मानुराग। इनका स्वरूप इस प्रकार है-तत्त्व का स्वरूप मालूम न हो तो भी वीतराग देवकथित तत्त्वस्वरूप कभी असत्य नहीं होता, ऐसी श्रद्धा जहाँ हो, उसे भावानुराग कहते हैं। तमेव सच्चं निसंकियं, जंजिणेहिं पवेडयं (जिनेन्द्र वीतराग भगवन्तों ने जो कहा है, वही सत्य और निःशंकित है) यह भावानुराग है। जिन पर प्रेम, स्नेह एवं वात्सल्य है, उन्हें बार-बार तत्त्व एवं सन्मार्ग समझा कर सन्मार्ग पर लगाना प्रेमानुराग है तथा जिनके रग-रग में, हड्डियों और मज्जातन्तु में सद्धर्म के प्रति राग . है. वे धर्म से विपरीत आचरण कभी नहीं करते. जिन्हें प्राणों से प्रिय अहिंसादि धर्म है, यह धर्मानुराग है और साधर्मिकों के प्रति वात्सल्य, गुणीजनों के प्रति प्रेम, . त्यागियों के प्रति भक्ति यह मज्जानुराग है। प्राथमिक भूमिका में राग या रागी का त्याग त्यागी या त्याग का आश्रय लेने से होता है अतः राग या रागी का त्याग करना, वीतरागदेव का सिद्धान्त और आज्ञा है। परन्तु इसका आचरण करने के लिए प्राथमिक भूमिका में त्यागी या त्याग़ का आश्रय लेना चाहिए। त्यागियों में ही त्याग का प्रत्यक्ष दर्शन हो सकेगा। अतः संसारासक्त रागी को राग-द्वेष के क्रमशः त्याग के लिए सर्वप्रथम त्यागी पुरुषों का आलम्बन लेना आवश्यक है, तभी त्याग के संस्कार जीवन में लाकर यत्किंचित् त्याग करना भी सीखेगा, अन्यथा राग में ही डूबा रहेगा। सच्चा त्यागी वही है, जो किसी प्रकार के राग, राग के निमित्तों या रागवर्द्धक पदार्थों में धन-सम्पत्ति, वैभव, कुटुम्बपरिवार, बंगला आदि के मोह-ममत्व में फंसा हुआ न हो अर्थात्-राग का त्यागी हो। मोक्षाभिलाषी आत्मार्थी आत्मकल्याण साधक गुरु भी मोहमाया के त्यागी, सांसारिक वासनाओं से, लोकैषणाओं तथा नामना-कामनाओं से विरक्त होते हैं, वे भी त्यागी की कोटि में आते हैं। यह हुआ प्रशस्तराग का विश्लेषण। १. (क) भावाणुराग-पेमाणुराग-मज्जाणुरागस्तो वा। धम्माणुरागरत्तो य होहि जिणसासणे णिच्वं ॥-भगवती-आराधना मू. ७३७/९०८ (ख) भगवती आराधना, भाषा ७३७/९०८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy