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________________ ५८४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ सकता, बशर्ते कि सामने वाला समभाव में, उपशम में स्थिर रहे। बल्कि रागद्वेष कर्ता के प्रति रोष, द्वेष न करके समभाव में स्थित रहने वाला कर्म-निर्जरा (कर्मक्षय) कर लेता है, आत्मकल्याण साधता है, जबकि रागद्वेष करने वाला संसार-सागर में डूबता जाता है, घोर पापकर्म का बन्ध करता है। रागद्वेष प्रेरित व्यक्ति समभावी वीतरागों का कुछ भी नुकसान न कर सके अतः रागद्वेष करने से करने वाले का नुकसान होता है, परन्तु जिस पर राग द्वेष किया जा रहा है, वह यदि स्थितप्रज्ञ होकर समभाव में स्थिर रहे तो उसका कुछ भी नुकसान, अहित या बिगाड़ नहीं होता। भगवान् महावीर पर गोशालक, संगमदेव एवं ग्वाले ने रागद्वेष किया या रागद्वेष कराया था अथवा रागद्वेष से प्रेरित होकर नाना उपसर्गों की बौछार की, ऐसा करके उन्होंने ही घोर अशुभकर्म बांधे। भ. महावीर का वे कुछ भी बिगाड़ न सके, न ही अहित कर सके; क्योंकि वे वीतराग भाव-समभाव में स्थिर रहे। इस कारण वे तो सर्वकर्म-मुक्त होकर मोक्ष चले गए, परन्तु गोशालक, संगमदेव तथा ग्वाले आदि रागद्वेष करने वालों का ही भव-संसार अनेक गुना बढ़ गया। इसी प्रकार भगवान् पार्श्वनाथ के प्रति तीव्र द्वेषबुद्धि से कमठ के जीव ने दस भवों तक सतत् महापापकर्म बांधते हुए अपना अनन्त संसार बढ़ा लिया, परन्तु भगवान् तो समताभाव में स्थित रहने से समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष में पहुँच गए। कमठ का जीव न जाने आगामी जन्मों में कितना दुःख भोगेगा, कितनी बार नरक और तिर्यंच गतियों में जाकर कहाँ तक अपने कृत पापकर्मों की सजा भोगता रहेगा?२ परन्तु एक बात अवश्य है, रागद्वेष करने वाला जिसके प्रति राग या द्वेष करता है, वह जीव यदि समभाव में स्थित नहीं रहता है अथवा वीतराग नहीं है तो वह रागकर्ता या द्वेषकर्ता के निमित्त से स्वयं राग करने या द्वेष करने लग जाए तो दोनों ओर राग से राग बढ़ता है, तथैव द्वेष से द्वेष बढ़ता है। द्वेष के कारण वैरपरम्परा अनेक जन्मों तक चलती रहती है। जिसका उल्लेख हम पिछले पृष्ठों में कर आए हैं। मंदरागी के लिए कौन-सा पथ उपयोगी? वैसे देखा जाए तो अंशमात्र भी रागद्वेष करना आत्मा के लिए हितकर या लाभदायक नहीं है, तथापि जो व्यक्ति अभी इतनी उच्च भूमिका तक पहुँचा नहीं है कि राग या द्वेष का सर्वथा त्याग कर सके या रागद्वेष से सर्वथा मुक्त हो चुका हो, १. कर्म की गति न्यारी भा. ८, पृ. २०, २१, ३२ २. कर्म की गति न्यारी भा.८ से भावांश ग्रहण, पृ. २१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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