SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 581
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५६१ द्वारा कृत उपसर्गों को सहता रहा। इस उत्कृष्ट ज्ञानादि वीतराग साधना के फलस्वरूप नौवें भव में वे समरादित्य वीतराग केवली हुए और सर्वकर्मों से मुक्त होकर मोक्ष में पधारे। यह था नौ-नौ भवों तक तीव्र द्वेषपरम्परा का फल। (२) तीव्र द्वेष-परम्परा-भगवान् पार्श्वनाथ के १० मुख्यभवों का वर्णन कल्पसूत्र आदि में मिलता है। प्रथम भव में 'मरुभूति' और 'कमठ', ये दोनों सहोदर भाई थे। मरुभूति की पत्नी के प्रति कमठ का तीव्र कामराग हुआ। दोनों भाइयों में स्त्रीराग को लेकर वैर-वैमनस्य की वृत्ति खड़ी हो गई। कमठ तापस बना। मरुभूति जब उनको नमन करने गया, तब कमठ ने पूर्व विद्वेषवृत्ति से प्रेरित होकर एक बड़ा पत्थर उसके सिर पर पटक कर जान से मार डाला। तीव्रद्वेषवश निकाचित कर्मबन्धयुक्त नियाणे के कारण आगामी दस भवों (जन्मों) तक कमठ उस वैरपरम्परा के कारण मरुभूति के जीव को मारता ही रहा। परन्तु समता और क्षमा का निष्ठावान आराधक मरुभूति का जीव राग और द्वेष तथा कषायभाव से दूर रहकर कर्मनिर्जरा करते हुए अन्तिम दसवें भव में तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान् बन गए और सर्वकर्मों का क्षय कर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा हो गए। इधर कमठ का जीव प्रत्येक भव में भयंकर द्वेषवृत्ति के कारण दस भवों तक पीछे लगा रहा और भयंकर पाप कर्मबन्ध करके नरक, तिर्यञ्च आदि दुर्गतियों में जन्म मरण आदि के महान् दुःख सहता रहा और आज भी वह संसार-अटवी में भटक रहा है तथा तीव्र द्वेष के फलस्वरूप महापाप कर्म बांध कर अनन्त काल तक-संसार में परिभ्रमण करता .रहेगा। यह तीव्रद्वेष की परम्परा का परिणाम! __(३) तीव्र द्वेष की तरह तीव्रराग भी भव-परम्परा बढ़ाता है। जैसे द्वेष की परम्परा चलती है, वैसे ही राग की परम्परा भी चलती है। क्योंकि वह भी संसार की वृद्धि करता है। शंख और कलावती के चरित्र में हम पढ़ते हैं कि शंख-कलावती के भव से राग की तीव्रता बढ़ी, उसके फलस्वरूप २१ जन्मों तक लगातार भवपरम्परा चलती रही। किसी जन्म में वे स्नेहरागवश भाई-बहन के रूप में तथा किसी जन्म में पति-पत्नी आदि के रूप में जुड़ते रहे। ___(४) इसी प्रकार पृथ्वीचन्द-गुणसागर की भी भवपरम्परा तीव्रस्नेहरागवश लगातार २१ भवों तक चलती रही। यह भी तीव्र राग का परिणाम था। .. (५) बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमिनाथ और राजीमती की भी लगातार नौ भवों तक राग-परम्परा चली। प्रथम भव से ही दोनों में पति-पत्नी का स्नेह-राग-सम्बन्ध जुड़ा था। तीव्र स्नेहराग के कारण सभी जन्मों में से पति-पत्नी ही बनते गए। इतना ही नहीं, देवभव में भी वे देव-देवी के रूप में साथ ही उत्पन्न हुए और वियोग भी दोनों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy