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________________ रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५५९ हो जाए, अत्यधिक समय और शक्ति बर्बाद हो, द्वेष के कारण मानसिक अशान्ति और तनाव बढ़े, शरीर अनेक बीमारियों का घर बन जाए, मनुष्य इसकी चिन्ता नहीं करता। शरीर और इन्द्रियों को अच्छी लगने वाली मनोज्ञ वस्तु होती है या अनुकूल घटना या परिस्थिति होती है, तो मनुष्य उस पर राग करता है और इन्द्रियों एवं मन को अच्छी न लगने वाली किसी प्रतिकूल वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति होती है, तो वह द्वेष, घणा. वैर-विरोध, ईर्ष्या एवं कलह करने लगता है। इस प्रकार कहीं राग तो कहीं द्वेष के इन दुर्विकल्पों और दुष्कृत्यों में जीवन की अमूल्य घड़ियाँ बर्बाद हो रही हैं। 'प्रशमरति' में ठीक ही कहा गया है-"इस प्रकार रागद्वेष के थपेड़ों से आहत होकर व्यक्ति केवल कर्मबन्ध ही करता है। दूसरे किसी थोड़े-से भी सद्गुण को प्राप्त नहीं कर पाता, जो उसके इहलोक और परलोक के लिए श्रेयस्कर हो।"१ राग और द्वेष से जीवन में सद्गुणों की वृद्धि होना तो दूर रहा, अनेक दुर्गुणों की ही वृद्धि होती है। जब तक रागद्वेष की मलिनता है, तब तक चारित्र में शुद्धता भी कैसे आ सकती है? व्यक्ति के श्रुतधर्म और चारित्रधर्म, दोनों ही राग-द्वेष से दूषित होते हैं। राग-द्वेष से चारित्र की शुद्धता तो क्या होगी, कभी-कभी राग-द्वेष की अधिकता बड़े-बड़े साधकों के चारित्र का ही सर्वनाश कर डालती है। क्योंकि रागद्वेष की प्रवृत्ति चारित्रमोह के उदय से होती है, तब चारित्र कैसे शुद्ध और निर्विकारी रह सकता है? . राग-द्वेष और कर्मबन्ध : एक ही सिक्के के दो पासे । सच पूछा जाए तो रागद्वेष करती हुई आत्मा कर्मबन्ध से भारी होती है। यही बात 'वंदित्तु प्रतिक्रमण सूत्र' में कही गई है कि "इस प्रकार आठों कर्म (बन्ध) राग-द्वेष से उपार्जित हैं।" मिथ्यात्व आदि तो बाद में कर्मबन्ध के कारण बनते हैं, सर्वप्रथम कर्मबन्ध राग-द्वेष से ही होता है। एक तरह से कर्मबन्ध और रागद्वेष परस्पर अन्योन्याश्रयरूप हैं। रागद्वेष की प्रवृत्ति करने से मोहकर्म उत्पन्न होता-बंधता है। मोहकर्म के उदय में आने पर विषयों के प्रति पुनः रागद्वेष होता है। फिर इससे कर्मबन्ध और पुनः मोहोदय से राग-द्वेष, पुनः बन्ध, फिर उदय और पुनः बन्ध। जैसे-गाड़ी के पहिये के ऊपर का भाग नीचे और नीचे का भाग ऊपर आता रहता है, इसी प्रकार राग और द्वेष का पहिया बन्ध और उदय के रूप में घूमता रहता है। इस प्रकार बन्ध-उदय के चक्र में अनन्त काल तक संसारी जीव घूमता रहता है। १. रागद्वेषोपहतस्य केवलं कर्मबन्ध एवास्य। नान्यः स्वल्पोऽपि गुणोऽस्ति, यः परत्रेह च श्रेयान् ॥ ५३॥ २. एवमट्ठविहं कम्मं रागदोस-समज्जियं। -वंदित्तु (प्रतिक्रमण) सूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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