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________________ ५५० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ नारकों और देवों के बीच ऋणानुबन्ध का उदय- इन दो गतियों के जीवों का परस्पर ऋणानुबन्ध छद्मस्थ जीवों के लिए अनुभवगम्य नहीं है, सर्वज्ञवचनगम्य है। परन्तु ऐसा होना कर्मों की विचित्रता के कारण असंभव नहीं है। परन्तु इस प्रकार की उदयस्थिति अत्यन्त अल्पप्रमाण में होती है। शास्त्रों में ऐसे कई दृष्टान्त मिलते हैं। शुभउदय-श्रेणिक राजा की तरह कोई जीव सम्यग्दर्शन या आत्मज्ञान प्राप्त होने से पहले हिंसाजनक भाव या आचरण करके अथवा अज्ञानदशा में घोर अपराध की प्रवृत्ति करके नरकगति का बन्ध कर लेता है । बाद में किसी समर्थ ज्ञानी. या भगवान् के प्राप्त होने पर उनके द्वारा दिया हुआ अपूर्व बोध अन्तर् में परिणत होता है, उसके जीवन का रूप अकस्मात् बदल जाता है। वह अपने दोषों के लिए सच्चे अन्तःकरण: से पश्चात्तापपूर्वक क्षमायाचना करता है तथा उक्त परम-पुरुष के आश्रय से धैर्य, उत्साह और अप्रमादपूर्वक सत्य धर्म का आचरण करता है। तीर्थंकरप्रभु की आज्ञा का एकनिष्ठा से आराधन करता है। आत्मज्ञान का अपूर्व लाभ प्राप्त करता है। आत्मवीर्य के उत्तरोत्तर विशेष प्रकट होने से सतत आत्मोपयोग में रहकर अप्रमत्त संयत गुणस्थान में स्थित हो जाता है तथा तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन कर लेता है। आयुष्य की पूर्णता होते ही उस भावी तीर्थंकर को पूर्वबद्ध नरकगति में (श्रेणिक महाराज की तरह) जाना पड़ता है। परन्तु वहाँ भी वे क्षायिक सम्यग्दृष्टि होने से नरकगति के दुःखों को शान्ति और समतापूर्वक भोगते हैं। दुःख देने वाले के प्रति बदला लेने की लेशमात्र प्रतीकार भावना नहीं होती, बल्कि उन दुःखों को ऋणानुबन्धोदयवश जानकर समभाव से सहने की निर्मल वृत्ति होती है। इस प्रकार ऋणानुबन्ध से बद्ध अशुभ कर्मों के उदय में आने पर वे सहज आत्मस्थिरता और आत्मशान्ति में रहकर उन कर्मों का क्षय कर डालते हैं। फिर भी कोई शुभ ऋणानुबन्धी देवगति के जीव को ऋण चुकाने का उदयगत सुअवसर आने पर वह देव भावी तीर्थंकर प्रभु की नारकीय जीवों के त्रास से रक्षण करने हेतु आते हैं और करते हैं। उस समय भावी तीर्थंकर स्वयं तो समताभाव में स्थित होकर ज्ञाताद्रष्टा रूप में रहते हैं । कभी ऐसा भी होता है-किसी देव को अपने शुभ ऋणानुबन्ध के उदय से नरकगति में स्थित अपने मित्र को सहायता करने का अवसर आता है। तब वह देव नरकभूमि में जाकर अपने नारक-मित्र को धर्मवचनों का बोध देता है; उसे धर्मभाव मैं स्थिर करता है। इस बोध का अत्यन्त शुभ परिणाम उक्त नारक को मिलता है। वह नरक की क्षेत्रगत तथा मारकों के परस्पर वैर-स्मरणगत वेदना को समभाव से बेदन करने का पुरुषार्थ करता है। उसका फल महान् और शुभ होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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