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________________ ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण ५४७ "यह दवा देने वाला कौन था? कौई वैद्य हकीम तो था नहीं! फिर कौन था?" मांगीलाल ने पहले तो बहुत टाल-मटूल करने की कोशिश की परन्तु पत्नी के हठाग्रह के सामने आखिर झुकना ही पड़ा। नानी के देवता बनने और सहायता करने की बात कह दी। साथ ही मांगीलाल ने पत्नी को इस बात को किसी से कहने के लिए सख्त मनाही कर दी। फिर भी पत्नी मन ही मन डर गयी। कुछ दिनों बाद उसका बेटा बीमार पड़ा तो उसने नानी को बहुत याद करने पर भी वह नहीं गई। मांगीलाल समझ गया कि मेरा शुभ ऋणानुबन्ध नानी के साथ चुक गया। इसी कारण नानी नहीं आई; क्योंकि उसने कहा था कि मेरे आने की बात किसी से कहना मत। पत्नी से कहकर मैंने बहुत भूल की। फिर उसने नानी देवता से बहुत अनुनय-विनय की, मगर नानी का ऋण अदा हो गया था। अतः अब वह कैसे आती? सच है, जिन देवों या पितरों के साथ स्नेह होता है, तो वे देवी या देव किसी न किसी प्रकार से सेवा, सहयोग या सहायता देते हैं। कई बार गुरु भी देव बनकर शिष्य की जागृत अवस्था में सदेह आते हैं, दर्शन देते हैं, ज्ञानदान देते हैं। शिष्य को आध्यात्मिक उन्नति बढ़ाने में निमित्त बनते हैं। इस तथ्य की साक्षी है-श्री योगानन्द परमहंस की आत्मकथा में उनके गुरुदेव का देहविलय होने के बाद उनके गुरु के विषय में लिखा हुआ 'श्री युक्तेश्वर का पुनरुत्थान' नामक प्रकरण। यह कुछ ही वर्षों पहले बनी हुई सत्य घटना है। ' अशुभ ऋणानुबन्ध का उदय-शरीर छूटते समय जीव के मन में मोह, वासना या आसक्ति किसी सचेतन या अचेतन पदार्थों में रह गए हों तो मरकर वह देवगति में भवनपति या वाणव्यन्तर देवों में जन्म लेते हैं। पूर्व (मनुष्य) भव के मोह, वासना, आसक्ति तथा विविध कषायों के संस्कार उनके साथ ही जाते हैं, साथ ही अन्य जीवों के साथ हुए वैर-विरोध, ईर्ष्या, असहिष्णुता, द्वेष, प्रतिक्रिया आदि पूर्वबद्ध ऋणानुबन्ध के उदय से जागृत होते हैं। उसकी प्रतिक्रियास्वरूप देव या देवी बनकर भी पूर्वभव-सम्बन्धित मनुष्यगति के जीवों को हैरान करते हैं। विविध प्रकार से दुःख, पीड़ा या यातना देते हैं। कभी उसके शरीर में प्रविष्ट होकर दुःख देते हैं, रुलाते हैं, पीड़ित करते हैं, भयभीत करते हैं, भोज्यवस्तुओं में गंदगी डालकर भोजन नहीं करने देते। कभी शरीर पर प्रहार करते हैं। कभी पलंग, कुर्सी, टेबल आदि उछालते हैं। इस प्रकार अशुभ उदयानुसार वे देव या देवी ऋणानुबन्धी मनुष्य को १. दो आंसू (उपाध्याय केवलमुनिजी) से सारसंक्षेप, पृ. १७६ से १९८ . २. 'ऋणानुबन्ध' से भावांश ग्रहण, पृ. ६६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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