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________________ ५२० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ भाग को मिथ्यात्व में स्थापन करता है। मिथ्यात्व और उस अंश का एक साथ क्षय करता है। उसके पश्चात् इस प्रकार क्रमशः सम्यग् और सम्यक्त्व-मोहनीय प्रकृतियों का क्षय करता है। जब सम्यग्-मिथ्यात्व की स्थिति एक आवलिकामात्र बाकी रह जाती है, तब सम्यक्त्व-मोहनीय की स्थिति आठ वर्ष प्रमाण बाकी रहती है। उसके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण (काल) खण्ड-खण्ड कर-करके खपाता है। जब उसके अन्तिम खण्ड को खपाता है, तब उस क्षपक को कृतकरण कहते हैं। इस कृतकरण के काल में यदि कोई जीव मरता है, तो वह चारों गतियों में से किसी भी गति में उत्पन्न हो सकता. यदि क्षपक श्रेणी का प्रारम्भर बद्धायु जीव करता है तो अनन्तानुबन्धी के क्षय के पश्चात् उसका मरण होना सम्भव है। उस अवस्था में मिथ्यात्व का उदय होने पर वह जीव पुनः अनन्तानुबन्धी का बन्ध करता है। क्योंकि मिथ्यात्व के उदय में नियम से अनन्तानुबन्धी का बन्ध होता है। किन्तु मिथ्यात्व के क्षय हो जाने पर पुनः अनन्तानुबन्धी का बन्ध नहीं होता। बद्धायु होने पर भी यदि उस समय मरण : (काल) नहीं करता है, तो अनन्तानुबन्धी कषाय और दर्शनमोह का क्षपण करने के बाद वह वहीं ठहर जाता है; चारित्रमोहनीय के क्षपण करने का प्रयत्न नहीं करता है। यदि अबद्धायु होता है तो उस श्रेणि को समाप्त (पार) करके केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है, और फिर मुक्त हो जाता है। अतः अबद्धायुष्क सकल श्रेणि को समाप्त (पार) करने वाले मनुष्य के तीन आयु-देवायु, मनुष्यायु और तिर्यञ्चायु का अभाव तो स्वतः ही हो जाता है तथा पूर्वोक्त क्रम से अनन्तानुबन्धी आदि चार तथा दर्शनत्रिक का क्षय चौथे आदि चार गुणस्थानों में कर देता है। (पृष्ठ ५१९ का शेष) (ग) दिगम्बर परम्परा में चारित्रमोहनीय के क्षपण से ही क्षपक श्रेणि मानी गई है, जैसा कि उपशम श्रेणि का आरोहक सप्तम गुणस्थानवर्ती माना गया था, वैसा ही क्षपक श्रेणि आरोहक को भी मानना। क्योंकि चारित्रमोहनीय के क्षपण से ही क्षपक श्रेणि मानी जाती है। (घ) पढम कसाए समयं खवेइ अंतोमहुत्तमेत्तेणं। तत्तो च्चिय मिच्छत्तं तओ य मीसं त सम्मं ॥ १३२२॥ -विशेषावश्यक भाष्य १. बद्धाउ-पडिवनो पढम-कसायक्खए जइ मरेज। तो मिच्छत्तोदयओ विणिज भुज्जो न खीणम्मि॥ १३२३॥ . -विशेषा. भाष्य बद्धाऊ-पडिवन्नो नियमा खीणम्मि सत्तए ठाइ। इयरोऽणुवरओ च्चिय सयलं सेढिं समाणेइ॥ १३३३॥ -विशेषा. भाष्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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