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________________ ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण ५११ होता है, उसके अन्तरकरण-सम्बन्धी दलिकों को प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति में क्षेपण करता है। जैसे-पुरुषवेद के उदय से श्रेणि चढ़ने वाला पुरुषवेद का। जिन कर्मों का उस समय उदय ही होता है, बन्ध नहीं, उनके अन्तरकरण-सम्बन्धी दलिकों को प्रथम स्थिति में ही क्षेपण करता है, द्वितीय स्थिति में नहीं। जैसेस्त्रीवेद के उदय से श्रेणी चढ़ने वाला स्त्रीवेद का। जिन कर्मों का उदय नहीं होता, अपितु उस समय केवल बन्ध ही होता है, उनके अन्तरकरण सम्बन्धी दलिकों का द्वितीय स्थिति में ही क्षेपण करता है, प्रथम स्थिति में नहीं। जैसे-संज्वलन क्रोध के (पृष्ठ ५१० का शेष) १२८८ के अनुसार यह क्रम पुरुषवेद के उदय से श्रेणि चढ़ने वाले जीवों की अपेक्षा से बताया गया है। यदि स्त्रीवेद के उदय से कोई जीव श्रेणि चढ़ता है तो वह पहले नपुंसकवेद का उपशम करता है, फिर क्रमशः पुरुषवेद, हास्यादिषट्क और स्त्रीवेद का उपशम करता है। नपुंसकवेद के उदय से श्रेणि चढ़ने वाला जीव पहले स्त्रीवेद का उपशम करता है, तत्पश्चात् क्रमशः पुरुषवेद, हास्यादिषट्क और नपुंसकवेद का उपशम करता है। निष्कर्ष यह है .कि जिस वेद के उदय से जीव श्रेणि पर चढ़ता है, उस वेद का उपशम सबसे अन्त में करता है, जैसा कि विशेषावश्यकभाष्य में कहा हैतत्तो य दंसणतिगं तओ अणुइण्णं जहन्नयर-वेयं। तत्तो वीयं छक्कं तओ य वेयं सव्वमुदिनं ।। १२८८॥ अर्थात्-अनन्तानुबन्धी की उपशमना के पश्चात् दर्शन (मोह).त्रिक का उपशम करता है। तदनन्तर अनुदीर्ण दो वेदों में से जो वेद हीन होता है, उसका उपशम करता है, तत्पश्चात् दूसरे वेद का उपशम करता है। उसके पश्चात् हास्यादिषट्क का और अन्त में जिस वेद का उदय होता है, उसका उपशम करता है। (ख) कर्मप्रकृति गा. ६५ (उपशमना प्रकरण) में इस क्रम को इस प्रकार बताया गया है-यदि स्त्री उपशम श्रेणि पर चढती है तो पहले नपंसकवेद का उपशम करती है, तत्पश्चात् चरम समय मात्र उदयस्थिति को छोड़कर स्त्रीवेद के शेष सभी दलिकों का उपशम करती है। तदनन्तर, अवेदक होने परं पुरुषवेद आदि ७ प्रकृतियों का उपशम करती है। तथा यदि नपुंसक उपशम श्रेणी पर चढ़ता है तो एक उदयस्थिति को छोड़कर शेष नपुंसकवेद तथा स्त्रीवेद का एक साथ उपशम करता है। उसके बाद अवेदक होने पर पुरुषवेद आदि ७ प्रकृतियों का उपशम करता है। देखें वह गाथाउदयं वज्जिय इत्थी इत्त्थिं समयइ अवेयगा सत्त । तह वरिसवरो वरिसवरित्थिं समगं कमारद्धे॥६५॥ (ग) लब्धिसार गा. ३६१, ३६२ में कर्मग्रन्थ के अनुरूप ही प्ररूपणा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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