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________________ ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय-सत्ता-सम्बद्धा प्रकृतियाँ . उदय और सत्ता बन्ध से सम्बद्ध : संसार बन्धमूलक कर्मों की उदय और सत्ता रूप अवस्था के होने के लिए यह आवश्यक है कि उनका जीव के साथ बन्ध हो। जब तक जीव संसार में स्थित है, तब तक कर्म का बन्ध किसी न किसी रूप में होता ही रहता है। जब तक जीव संसार में है तब तक कर्म-प्रकृतियों की अनेक अवस्थाओं से भी वह संयुक्त होता रहता है। इन कर्मों से विमुक्त होने के लिए संयुक्त होने की अवस्थाओं को भी जानने की आवश्यकता है। ___ कर्मबन्ध का दायरा इतना विस्तृत और व्यापक है कि इसे विविध पहलुओं से समझने और चिन्तन करने की आवश्यकता है। कर्मबन्ध होने के साथ-साथ उसका प्रकृतिबन्ध आदि चार रूपों में वर्गीकरण कर्मविज्ञान ने किया है। साथ ही, बन्ध के साथ-साथ उसके सहचारी सत्ता, उदय और उदीरणा का भी व्यापक चिन्तन कर्मविज्ञान ने प्रस्तुत किया है। ___ इस प्रकरण में हम उन बन्ध, उदय और सत्ता के ध्रुव तथा अध्रुव रूपों का विश्लेषण करके बताना चाहते हैं कि कर्म की १४८ उत्तरप्रकृतियों में बन्ध और उदय के योग्य क्रमशः १२० व १२२ कर्मप्रकृतियों में से कितनी-कितनी और कौनकौन-सी प्रकतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं ? कितनी और कौन-सी अध्रुवबन्धिनी हैं ? कितनी और कौन-कौन-सी प्रकृतियाँ ध्रुवोदया हैं ? कितनी और कौन-कौन-सी अध्रुवोंदया हैं ? कितनी और कौन-कौन-सी प्रकृतियाँ ध्रुवसत्ताका हैं और कितनी और कौन-कौन-सी प्रकृतियाँ अध्रुवसत्ताका हैं ? बन्ध की इन विविध अवस्थाओं . १. धुवबंधि धुवोदय सव्वघाइ परियत्तमाण असुभाओ । पंचवि सपडिवक्खा पगई य विवागओ चउधा ॥ -पंचसंग्रह ३/१४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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