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________________ ४८० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ का कारण बताया गया है, जबकि क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भावों को मोक्ष के कारण प्ररूपित किये गए थे। अतः क्या तीर्थंकर या सामान्य केवली का औदयिक भाव बन्ध का कारण नहीं है? इसका समाधान किया गया है कि 'औदयिक भाव बन्ध का कारण है,' ऐसा कथन होने पर भी सभी औदयिक भाव बन्ध के कारण नहीं हैं, जो औदयिक भाव मोहादि घातिकर्मों से रहित है, वह बन्ध का कारण नहीं है। अन्यथा, तीर्थंकर केवली आदि के भी गति, जाति, शरीर आदि नामकर्म सम्बन्धी औदयिक भाव भी बन्ध के कारण बन जाएँगे, जबकि उनके बन्धकरण मोहादि न होने से वे बन्ध के कारण नहीं हैं। अर्हन्त भगवान् की क्रियाएँ औदयिक होते हुए भी क्षायिक हैं 'प्रवचनसार' में दूसरा प्रश्न यह है कि अर्हन्त भगवान् अत्यन्त पुण्यफल वाले हैं, उनकी क्रियाएँ तो औदयिकी ही हैं (योग द्वारा होने से) तथा उनकी विहार, उपदेश आदि सब क्रियाएँ पुण्य के उदय से निष्पन्न होने के कारण औदयिकी ही हैं, अतः क्या वे बन्ध करने वाली नहीं हैं? इसका समाधान यह है कि ऐसा होने पर भी वह औदयिकी क्रिया सदैव मोहराजा की समस्त सेना के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होती है, इसलिए मोह-राग-द्वेषरूपी उपरंजकों (कर्मबन्धकों) का सर्वथा अभाव होने से चैतन्य (उनकी आत्मा) के लिए विकृति (बन्ध) का कारण नहीं। इसलिए उन क्रियाओं को कार्यभूत बन्ध की अकारणभूतता के कारण, किन्तु कार्यभूत मोक्ष की कारणभूतता के कारण उन्हें क्षायिकी ही क्यों न मानी जाएँ? वास्तव में, मोहजनित भाव ही औदयिक हैं, और वे बन्ध के कारण हैं, मोहरहित भाव औदंयिक होते हुए भी वे बन्ध के कारणभूत न होने से एक प्रकार से क्षायिक ही समझने चाहिए। क्षायोपशमिक भाव : स्वरूप, कार्य और फल कर्मों के क्षयोपशम से प्रगट होने वाले भाव को क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। क्षायोपशमिक भाव को मिश्रभाव भी कहते हैं; क्योंकि यह भाव कर्मों के आंशिक . . . . . . . ओदइया बंधयरा उवसम-खय-मिस्सया य मोक्खयरा, एदीए सुत्तगाहाए "ओदइया बंधयरा ति वुत्ते, ण सव्वेसिमोदइयाणं भावाणं गहणं, गदि-जादि-आदीणं पि ओदइयभावाणं बंध-कारण-प्पसंगादो।" -धवला २/१,७/९/९ २. (क) पुण्णफला अरहंता, तेसिं किरिया पुणो हि ओदयिगा। मोहादीहिं विरहिदा, तम्हा सा खाइग त्ति मदा॥ (ख) प्रवचनसार, मूल ४५, त. प्र. टीका। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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