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________________ ४७४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ - औपशमिक भाव से मोक्षाभिमुख गति-प्रगति और पराक्रम यहाँ केवल इतना ही बताना अभीष्ट है कि कर्ममल जितनी देर तक दबा रहा, शान्त निश्चल एवं उदय से विरत रहा, भले ही क्षणभर के लिए सही, उतनी देर तक तो जीव के परिणाम शत-प्रतिशत निर्मल एवं विशुद्ध रहे, इतने काल तक उसमें न कोई विकल्प उदित होता है, न ही कषाय। उतने काल तक वह पूर्ण समता और शमता से युक्त रहा। भले ही वह थोड़ा-सा काल व्यतीत हो जाने पर पुनः उक्त कर्म का उदय आ जाए और उसके प्रभाव से जीव में पुनः विकल्प और कषाय जागृत हो. जाए, परन्तु इतने काल तक तो वह पूर्णतया निर्विकल्प तथा वीतराग रहता ही है। उपशम सम्यक्त्व में जिस प्रकार दर्शनसप्तक का उपशम हो जाता है, इसी प्रकार उपशमचारित्र में भी चारित्रमोहनीय अथवा कषाय-नोकषाय-मोहनीय का सर्वथा उपशमन हो जाता है। इन कषायों के उपशमन होने से यानी दब जाने से आत्मा के परिणाम बहुत ही शुद्ध और निर्मल हो जाते हैं। उस जीव को अपनी शुद्धात्मा का उस समय रसास्वादन होता है। श्रेणी चढ़ने पर वह शुक्लध्यान पर भी पहुँच जाता है। इतना सब होते हुए भी वह जीव वीतराग केवली नहीं बन पाता। चूँकि मोह एवं कषाय पूर्णतया नष्ट नहीं हुआ, इसलिए कषायों का उदय होते ही उसके परिणाम पुनः मलिन हो जाते हैं। फिर भी यह काल अत्यल्प होते हुए भी जीवन में इसका जो महत्व है, वह अल्प न होकर महान् है। यही औपशमिक भाव की मोक्षाभिमुख गति-प्रगति है। औपशमिक भाव के भेद-प्रभेद और उसका महत्व औपशमिक भाव के भेद-प्रभेदों की ओर दृष्टिपात करने से भी इस कथन की पुष्टि हो जाती है। औपशमिक भाव के दो ही स्थान होते हैं- सम्यक्त्व और चारित्र। इस अपेक्षा से इसके मूल भेद दो ही होते हैं- औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र। इनमें से औपशमिक सम्यक्त्व 'धवला' के अनुसार एक ही प्रकार का है, जबकि औपशमिक चारित्र सात प्रकार का है। जैसे- नपुंसकवेद के उपशमनकाल में एक चारित्र, स्त्रीवेद के उपशमनकाल में दूसरा चारित्र, पुरुषवेद और छह नोकषायों के उपशमनकाल में तीसरा चारित्र, क्रोधसंज्वलन के उपशमनकाल में चौथा चारित्र, मान-संज्वलन के उपशमनकाल में पांचवाँ चारित्र, माया-संज्वलन के उपशमनकाल में छठा चारित्र और लोभ-संज्वलन के उपशमनकाल में सातवाँ चारित्र। इस प्रकार सात भेद औपशमिक चारित्र के होते हैं। १. (क) कर्मसिद्धान्त', पृ. १०७-१०८ __ (ख) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (उपाध्याय श्री केवलमुनिजी), पृ. ८१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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