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________________ २८ . कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ ___ जन्म-जन्मान्तर के उपार्जित शुभाशुभ कर्मों के कारण ये सम्बन्धी अच्छे भी मिलते हैं और बुरे भी। सम्बन्ध जोड़ते समय कई बार तो मनुष्य को यह पता भी नहीं होता कि मैं जिससे सम्बन्ध जोड़ रहा हूँ, या जिससे मेरा नाता-रिश्ता हो रहा है, वह अच्छा है या बुरा है ? ___प्रारम्भ में कई लोग आपातभद्र होते हैं, लेकिन उनके साथ निवास करने पर वे अभद्र सिद्ध होते हैं। अथवा कई लोग प्रारम्भ में निवास करते समय अभद्र-से लगते हैं, किन्तु बाद में उनके कोमल वात्सल्यपूर्ण व्यवहार के कारण वे भद्र सिद्ध होते हैं। कई प्रारम्भ में भी अभद्र होते हैं, साथ में रहने पर भी उनका रहन-सहन अभद्रता का होता है। और कई प्रारम्भ में भी भद्र होते हैं और साथ में रहने पर भी अन्त तक भद्र सिद्ध होते हैं। इस तथ्य को चौभंगी के द्वारा स्थानांगसूत्र में उद्घाटित किया है। अतः द्वितीय और चतुर्थ विकल्प वाले व्यक्तियों से रिश्ता-नाता जुड़ने पर व्यक्ति को कर्मबन्ध के कलह-क्लेश के बहुत ही कम अवसर आते हैं; बशर्ते कि उस व्यक्ति का स्वयं का हृदय एवं व्यवहार उदार हो। परन्तु जहाँ प्रारम्भ और अन्त में अभद्र व्यक्ति से ही पाला पड़ जाए, अथवा प्रारम्भ में भद्र प्रतीत होने वाले, किन्तु क्षुद्र हृदय के अभद्र व्यक्ति से नाता-रिश्ता जुड़ जाए, वहाँ क्लिष्ट कर्मों का बन्ध पद-पद पर होने की सम्भावना है। ___ इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि जो पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय या अन्य क्षेत्रीय सम्बन्ध जुड़ते हैं, उनमें इस जन्म के सिवाय पूर्वजन्म-जन्मों के भी संस्कार आते हैं। इसे वैदिक दर्शन में 'ऋणानुबन्ध' कहा जाता है, जबकि जैनदर्शन उसे परम्परबन्ध (जन्म-जन्मान्तर से परम्परागत बन्ध) कहता है। जैसे-गजसुकुमाल मुनि का ९९ लाख भवों पूर्व के बँधे हुए परम्परागत कर्मबन्ध गजसुकुमाल के भव में उदय में आए। इसी प्रकार ऋणानुबन्ध भूतकाल से भी सम्बद्ध है, वर्तमान में भी परस्पर व्यवहार में कर्मबन्ध से सम्बद्ध है और भविष्यकाल के साथ भी सम्बद्ध है। इसलिए ऋणानुबन्ध सम्बन्धी निबन्ध द्वारा हमने स्पष्ट किया है कि शुभ या अशुद्ध ऋणानुबन्ध के उपस्थित होने पर आत्मार्थी मुमुक्षु को किस प्रकार किन-किन उपायों से, किस प्रकार के शुभ योगों से अथवा शुद्ध अनुप्रेक्षाओं, भावनाओं आदि से कर्मबन्ध होने से, तथा अशुभ ऋणानुबन्ध के कारण प्राप्त अशुभ सम्बन्धी के साथ किस प्रकार के व्यवहार से कर्मबन्ध के कारणों से बचना चाहिए। १. देखें, इसी कर्मविज्ञान के आठवें खण्ड में-'ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण' लेख। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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