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________________ ४५.४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक में रहता है- (१) सुभग, (२) आदेय, (३) यश: कीर्तिनाम, (४) वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियों में से एक, (५) त्रस, (६) बादर, (७) पर्याप्त, (८) पंचेन्द्रिय जाति, (९) मनुष्यायु, (१०) मनुष्या गति, (११) तीर्थंकरनाम और (१२) उच्चगोत्र । ये १२ प्रकृतियाँ भी चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में सर्वथा क्षय हो जाती हैं। इस प्रकार प्रथम गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक उदय की प्ररूपणा कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रह, गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में की गई है। छठे गुणस्थान तक उदय और उदीरणा में समानता यद्यपि गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की संख्या उदय और उदीरणा में समान है, किन्तु यह नियम प्रथम- मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक समझना चाहिए, आगे सातवें- अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर तेरहवें - सयोगिकेवली. गुणस्थान तक इन ७ गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के उदय की अपेक्षा उंदीरणा में कुछ विशेषता होती है। - उदय से उदीरणा में विशेषता उदय की अपेक्षा उदीरणा में विशेषता : ७ वें से १४ वें गुणस्थान तक उस विशेषता का कारण यह है कि छठे गुणस्थान में उदययोग्य प्रकृतियाँ ८१ बतलाई गई हैं। उसके अन्तिम समय में आहारकद्विक और स्त्यानर्द्धित्रिक, इन ५ प्रकृतियों उदय-विच्छेद बताया गया है, किन्तु इन ५ प्रकृतियों के सिवाय वेदनीयद्विक (साता-असातावेदनीय) और मनुष्यायु, इन तीन प्रकृतियों का उदीरणा-विच्छेद भी होता है। छठे गुणस्थान से आगे ऐसे अध्यवसाय नहीं होते हैं कि वेदनीयद्विक और मनुष्यायु की उदीरणा हो सके, क्योंकि उदीरणा ( इन तीनों की ) संक्लिष्ट परिणामों से ही होती है, इस कारण अप्रमत्तादि गुणस्थानों में इनकी उदीरणा होना सम्भव नहीं है। इसी कारण सप्तम गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक उदययोग्य प्रकृतियों की अपेक्षा उदीरणायोग्य तीन प्रकृतियाँ कम मानी जाती हैं। १. (क) मोक्ष की असाधारण कारणभूत पुण्योदयात्मक प्रकृतियाँ प्रायः १४वें गुणस्थान तक उदय में रहती हैं इसलिए वहाँ तक संसारी अवस्था मानी जाती है। तदनन्तर सिद्धावस्था होती है, जब एक भी कर्म सत्ता या उदय में नहीं रहता है। भी १४वें गुणस्थान के अन्त तक प्राय: ये ही १२ प्रकृतियाँ रहती हैं। (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ गा. २२ विवेचन ( मरुधरकेसरीजी), पृ. ९५, ९६ सत्ता में - सं. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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