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________________ गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४५१ गुणस्थानों में संक्लिष्ट-परिणामरूप काषायिक प्रकृतियों का उदय होना भी न्यून से न्यूनतर होता जाता है। यही कारण है कि आठवें गुणस्थान में उदय-योग्य ७२ प्रकृतियों में से, इसी गुणस्थान के अन्तिम समय में हास्यादिषट्क (हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, इन ६) प्रकृतियों का उदय-विच्छेद्र हो जाता है। फलतः ७२ प्रकृतियों में ये ६ प्रकृतियाँ कम हो जाने पर ६६ प्रकृतियों का ही उदय होता है। - (१०) दसवें सूक्ष्म-सम्पराय गुणस्थान में ६० प्रकृतियाँ उदययोग्य होती हैं। वास्तव में नौवें गुणस्थान के प्रारम्भ में ६६ प्रकृतियों का उदय होता है, किन्तु उत्तरोत्तर क्रमशः परिणामों की विशुद्धि बढ़ती जाने से अनुक्रम से वेदत्रिक (स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद) तथा संज्वलन कषायत्रिक (संज्वलन का क्रोध, मान, और माया) इन ६ प्रकृतियों का उदय नौवें गुणस्थान में ही क्रमशः रुक जाता है। अतः उक्त ६६ प्रकृतियों में से वेदत्रिक और संज्वलनकषाय त्रिक को कम करने पर दसवें गुणस्थान में ६० प्रकृतियाँ ही उदय-योग्य रह जाती हैं। ___ (११) ग्यारहवें गुणस्थान में ५९ प्रकृतियाँ उदययोग्य होती हैं। दसवें गुणस्थान में उदययोग्य ६० प्रकृतियों में से उसी गुणस्थान के अन्तिम समय में संज्वलन-लोभ का उदय-विच्छेद हो जाता है। अतः संज्वलन-लोभ-कषाय को कम करने से ५९ प्रकृतियों का उदय ग्यारहवें गुणस्थान में होता है। १. नौवें गुणस्थान में वेदत्रिक एवं संज्वलन कषायत्रिक, इन ६ प्रकृतियों के उदय-विच्छेद का क्रम यों है-यदि श्रेणी का प्रारम्भ स्त्री करती है तो वह पहले स्त्रीवेद का, तदनन्तर पुरुषवेद का और फिर नपुंसक वेद का उदय-विच्छेद करती है। तत्पश्चात् क्रमशः संज्वलन कषायत्रिक को रोकती है। यदि श्रेणी का प्रारम्भ पुरुष करता है तो सर्वप्रथम पुरुषवेद, तदनन्तर स्त्रीवेद और फिर नपुंसक वेद का उदय-विच्छेद करके क्रमशः संज्वलनत्रिक का उदय रोकता है। यदि श्रेणी आरोहण कर्ता नपुंसक है तो पहले नपुंसकवेद का उदय रोक कर उसके बाद स्त्रीवेद के उदय को, और फिर पुरुषवेद के उदय को रोकता है, तत्पश्चात् क्रमशः संज्वलन-त्रिक के उदय को रोकता है। . -द्वितीय कर्मग्रन्थ गा. १९ की टिप्पणी (मरुधरकेसरी) पृ. ८९ तुलना करें- .....अपुव्वम्हि। छच्चेव णोकसाया अणियट्टी भाग भागेसु ॥ २६८ वेदतिय कोहमाणं माया-संजलणमेव सुहुमंते। सुहुमो लोहो संते वजणाराय-णाराय॥ -गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) २६९ २. (क) सम्मत्तंतिम-संघयणतियगच्छेओ बिसत्तरि अपुव्वे। हासाइ छक्क अंतो छसट्टि अनियट्टि वेयतिगं॥ १८॥ (शेष पृष्ठ ४५२ पर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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