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________________ ४४४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ स्वभावानुसार फल नहीं देती है। इसी प्रकार अन्य कर्मों की फलदायी शक्ति के बारे में भी समझ लेना चाहिए। - सामान्यतया उदययोग्य प्रकृतियाँ : कितनी और कैसे? . . सामान्यतया उदययोग्य प्रकृतियाँ १२२ हैं; जबकि बंधयोग्य १२० प्रकृतियाँ मानी जाती हैं। इस प्रकार उदययोग्य और बन्धयोग्य प्रकृतियों में दो का अन्तर है। जो नहीं होना चाहिए, क्योंकि जितनी प्रकृतियों का बन्ध हो, उतनी ही प्रकृतियों को उदययोग्य माना जाना उचित है। अन्यथा, बिना कर्मबन्ध के ही कर्मफल भोगना माना जाएगा, जो सिद्धान्त विरुद्ध है। इसका समाधान यह है कि बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों की अपेक्षा १२२ प्रकृतियों का उदययोग्य मानने का कारण यह है कि बन्ध केवल मिथ्यात्वमोहनीय का ही होता है, किन्तु वह मिथ्यात्व-मोहनीय जब परिणामों की विशुद्धता अर्द्धविशुद्धरूप या शुद्धरूप हो जाता है, तब मिश्रमोहनीय (सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय) तथा सम्यक्त्वमोहनीय के रूप में उदय में आने के कारण बन्धयोग्य १२० में इन दोनों प्रकृतियों को मिलाने पर १२०+२-१२२ प्रकृतियाँ उदययोग्य तथा उदीरणायोग्य मानी जाती हैं। उदययोग्य तथा उदीरणायोग्य १२२ प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, आयुकर्म की ४, नामकर्म की ६७, गोत्रकर्म की २, और अन्तराय कर्म की ५; इस प्रकार ५+९+२+२८+४+ ६७+२+५=१२२ प्रकृतियाँ होती हैं।२ । प्रथम गुणस्थान में उदययोग्य ११७ प्रकृतियाँ : क्यों और कैसे? (१) प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में ११७ प्रकृतियाँ उदययोग्य मानी जाती हैं। सामान्यतया उदययोग्य १२२ कर्मप्रकृतियों में से मिश्रमोहनीय का उदय तीसरे गुणस्थान में, सम्यक्त्व-मोहनीय का उदय चौथे गुणस्थान में, आहारकद्विक (आहारक शरीर और आहारक. अंगोपांग) का उदय प्रमत्तसंयत गुणस्थान में और तीर्थंकर नामकर्म का उदय तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में होता है। अतः इन पांच प्रकृतियों को छोड़कर शेष ११७ प्रकृतियों का उदंय पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में माना जाता है। १. (क) उदओ विवागवेयणमुदीरण अपत्ति इह दुवीससयं। सत्तर सय मिच्छे, मीस-सम्म-आहार-जिणऽणुदया॥ १३॥ -द्वितीय कर्मग्रन्थ (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ, गा. १३, विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ७२ से ७४ तक २. द्वितीय कर्मग्रन्थ, गा. १३, विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ७५ ३. वही, गा. १३ विवेचन, पृ.७५-७६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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