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________________ गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४३५ क्षपक श्रेणी के विसंयोजक और अविसंयोजक के आश्रय से तथा क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्व के आश्रय से भी विचार किया जाता है। विसंयोजना करने वाले को 'विसंयोजक' कहते हैं। दर्शनसप्तक की ७ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क का तो क्षय हो जाए, किन्तु शेष दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियाँ (मोहत्रिक) सत्ता में हों, उनका क्षय न हुआ हो, अर्थात्मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के सत्ता में होने से उनका उदय हो, तब पुनः अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क के बन्ध की सम्भावना बनी रहे, ऐसे क्षय को विसंयोजना कहते हैं। तथा जिसका क्षय होने पर पुनः उस प्रकृति के बन्ध की सम्भावना ही न रहे, उसे क्षय कहते हैं। .. सत्तायोग्य कर्मप्रकृतियाँ १४८ : कौन-कौन-सी ? सत्तायोग्य १४८ कर्मप्रकृतियाँ हैं। वे इस प्रकार हैं- ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २८, आयुकर्म की ४, नामकर्म की ९३, गोत्रकर्म की २ और अन्तरायकर्म की ५; यों कुल मिलाकर आठ कर्मों की ५+९+२+२८+४+९३+२+५=१४८ कर्मप्रकृतियाँ सत्तायोग्य होती हैं। __ यद्यपि उदययोग्य कर्मप्रकृतियाँ १२२ बतलाई गईं हैं, किन्तु सत्तायोग्य १४८ कर्मप्रकृतियाँ बतलाने का कारण यह है कि उदयाधिकार में पांच बन्धन और पांच संघातन नामकर्म की १० प्रकृतियों की पृथक्-पृथक् विवक्षा न करके उन दोनों की ५-५ प्रकृतियों का अन्तर्भाव शरीरनामकर्म में कर लिया गया था। इसी प्रकार उदय के समय वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नामकर्म की एक-एक प्रकृति की विवक्षा की गई थी, परन्तु सत्ता के प्रकरण में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के क्रमशः ५, २, ५, ८ भेदों का ग्रहण किया गया है। इस प्रकार उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में बन्धन और संघातन के पूर्वोक्त ५+५=१० भेद मिलाने से तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, इन चारों के २० भेदों में से ४ भेद बाद करके १६ भेद और मिलाने से, अर्थात् कुल २६ भेदों को उसमें और १. (क) कर्मग्रन्थ भा. २, गा. २५ पर विवेचन (मरुधरकेसरीॉजी), पृ. १००, १०३ (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ गा. २५ पर विवेचन (पं. सुखलालजी), पृ.७३, ७४ २. (क) द्वितीय कर्मग्रन्थ गा. २५ विवेचन पृ. १०२, १०३ (ख) संते अडयालसयं जा उवसमु विजिणु विय-तइए ॥२५॥ -कर्मग्रन्थ भा. २ (ग) पूर्वोक्त बन्धन और संघातन तथा वर्णचतुष्क, ये सब नामकर्म की प्रकृतियां हैं। अतः इनके पूरे नामों को कहने के लिए प्रत्येक प्रकृति के साथ 'नामकर्म' शब्द जोड़ लेना चाहिए। -सम्पादक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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