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________________ गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४२९ अंगोपांग) ये दो प्रकृतियाँ भी बन्धयोग्य होने से ५९ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य मानी जाती हैं। किन्तु जो जीव छठे गुणस्थान में ही देवायु का बन्ध-विच्छेद करके सातवें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं, उनकी अपेक्षा ५८ प्रकृतियाँ ही सातवें गुणस्थान में बंधयोग्य मानी जाती हैं। इस विभिन्नता का कारण है- सातवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले द्विविध जीव:- (१) एक वे हैं, जो छठे गुणस्थान में देवायु के बन्ध को प्रारम्भ करके उसे उसी गुणस्थान में उसका विच्छेद किये बिना ही सातवें गुणस्थान को प्राप्त करते हैं और सप्तम गुणस्थान में देवायु के बन्ध को समाप्त करते हैं। (२) दूसरे वे हैं, जो देवायु के बन्ध का प्रारम्भ तथा उसका विच्छेद, इन दोनों को छठे गुणस्थान में ही करके सातवें गुणस्थानं को प्राप्त करते हैं। इन दोनों प्रकार के सप्तम-गुणस्थानवर्ती जीवों में प्रथम प्रकार के जीव छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में शोक, अरति आदि ६ प्रकृतियों को छठे गुणस्थान की बन्धयोग्य ६३ प्रकृतियों में से कम करके तथा आहारकद्विक प्रकृतियों सहित ५७+२=५९ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं; जबकि दूसरे प्रकार के जीव. इन ५९ प्रकृतियों में से देवायु का भी बन्धविच्छेद करके ५८ प्रकृतियों का बंध करते हैं। ध्यान रहे, आहारक शरीर और आहारक-अंगोपांग, इन दोनों प्रकृतियों का उदय सातवें गुणस्थान में ही होने से इन दोनों का बन्ध भी सातवें गुणस्थान में होता है। (८) आठवें निवृत्तिबादर (अपूर्वकरण) गुणस्थान के सात भाग हैं। उनमें प्रथम भाग में सातवें गुणस्थान में बन्धयोग्य ५९ प्रकृतियों में से देवायु को कम कर देने से शेष ५८ प्रकतियाँ बंधती हैं। द्वितीय भाग से लेकर छठे भाग तक (पांच भागों) में छप्पन प्रकृतियाँ बंधती हैं, क्योंकि यहाँ निद्रा और प्रचला, ये दो प्रकृतियाँ नहीं बँधती हैं। अतः पूर्वोक्त ५८ प्रकृतियों में से ये दो प्रकृतियाँ घटा देने पर ५६ प्रकृतियाँ ही शेष रहती हैं। सातवें भाग में २६ प्रकृतियाँ बंधती हैं। छठे भाग में बन्धयोग्य ५६ प्रकृतियों में सुरद्विक आदि ३० प्रकृतियाँ कम करने से शेष २६ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य रहती हैं। ___यद्यपि देवायु के बन्ध का प्रारम्भ सातवें गुणस्थान में नहीं होता, किन्तु छठे गुणस्थान में प्रारम्भ किये हुए देवायु के बन्ध की सातवें गुणस्थान में समाप्ति होती है, इस अपेक्षा से सातवें गुणस्थान में बंधयोग्य ५९ प्रकृतियों में देवायु की गणना की गई है। किन्तु आठवें आदि गुणस्थानों में न तो देवायु के बन्ध का प्रारम्भ होता है और न ही उसकी समाप्ति होती है। इस अपेक्षा से आठवें गुणस्थान के प्रथम भाग में देवायु को छोड़कर ५८ प्रकृतियाँ बन्धयोग्य मानी गई है। इस प्रथम भाग के अन्तिम समय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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